Advance Chemistry : 2020

Wednesday, December 30, 2020

वेग नियम तथा वेग स्थिरांक (Rate law and rate constant)

वेग नियम तथा वेग स्थिरांक (Rate law and rate constant)

वेग नियम (Rate law )-
वह गणितीय व्यंजक जो अभिकारकों के मोलर सांद्रण पर अभिक्रिया के दर की प्रायोगिक निर्भरता को व्यक्त करता है वेग नियम कहलाता है|
         इस नियम में अभिक्रिया की दर को अभिकारकों की मोलर सांद्रता के गुणनफल के पदों में व्यक्त किया जाता है| सांद्रण पर अभिक्रिया के वेग की वास्तविक निर्भरता व्यक्त करने वाले मान को प्रत्येक सांद्रण पद की घात के रूप में व्यक्त किया जाता है|

यदि एक सामान्य अभिक्रिया,
aA + bB ---> cC + dD 
 की दर A के सांद्रण की घात p तथा B के सांद्रण की घात q पर निर्भर करती है तो, 
   Rate = k [A]p  [B]q 
उपरोक्त समीकरण में प्रयुक्त घातें p तथा q के मान संतुलित समीकरण में प्रयुक्त स्टॉयशियोमीट्रिक नियतांक मानों a तथा b के समान हो भी सकते हैं तथा यह मान उन से भिन्न भी हो सकते हैं|
         कुछ अभिक्रियाओं के वेग नियम निम्न है-
(1) H2 + I2 ---> 2HI 
      Rate = k [H2]  [I2]
 (2) 2NO + O2 ---> 2NO2 
      Rate = k [NO]2  [O2]
(3) NO2 + CO ---> NO + CO2
      Rate = k [NO2]2  [CO]0 
               = k [NO2]2
वेग स्थिरांक (Rate constant)-
अभिक्रिया के वेग नियम में प्रयुक्त स्थिरांक k को वेग स्थिरांक या दर स्थिरांक कहा जाता है| इसे विशिष्ट अभिक्रिया वेग भी कहते हैं|
           माना कि सामान्य अभिक्रिया,
aA + bB ----> product  
 का वेग नियम निम्न है-
       Rate = k [A]p  [B]q 
 जहां, k वेग स्थिरांक है तथा घात p, q क्रमशः अभिकारकों A तथा B के सांद्रण पर अभिक्रिया के वेग की निर्भरता को व्यक्त करते हैं|
 यदि, [A] = 1mol/L
        [B] = 1mol/L
 अतः वेग स्थिरांक को निम्न प्रकार परिभाषित किया जा सकता है-
     किसी अभिक्रिया का वेग स्थिरांक उस समय अभिक्रिया के वेग के बराबर होता है जब प्रत्येक अभिकारक का सांद्रण इकाई हो|
 किसी निश्चित ताप पर अभिक्रिया के वेग स्थिरांक का मान निश्चित होता है| ताप बढ़ाए जाने पर इसके मान में वृद्धि होती है| इसका मान अभिकारकों के प्रारंभिक सांद्रणों पर निर्भर नहीं करता है|

 वेग स्थिरांक के मात्रक-
वेग स्थिरांक के मात्रक अभिकारकों के सांद्रण को व्यक्त करने वाले घातों के योगफल पर निर्भर करता है|
    उदाहरण के लिए, माना की सामान्य अभिक्रिया 
aA + bB ----> product  
का वेग नियम नियम है-
      Rate = k [A]p  [B]q 
यदि, p+q = n तो 
 Rate = k [अभिकारकों का सांद्रण ]n 
अतः, 
k= rate /[अभिकारकों का सांद्रण ]n 
  = molL´1s´1/ (molL´1)n 
  = mol1-n Ln-1 s-1



Tuesday, December 29, 2020

अभिक्रिया की दर को प्रभावित करने वाले कारक (Factors which affect the reaction rate)

अभिक्रिया की दर को प्रभावित करने वाले कारक 
(Factors which affect the reaction rate)
किसी अभिक्रिया की दर निम्न कारकों पर निर्भर करती है-
(1) अभिकारकों की प्रकृति-
रासायनिक अभिक्रिया की दर अभिकारकों की प्रकृति पर निर्भर करती है| जैसे- यदि किसी अभिक्रिया में अभिकारकों की प्रकृति ध्रुवीय या आयनिक है तो वह अभिक्रिया तीव्र गति से होती है जबकि सह संयोजी पदार्थों की अभिक्रियाएं अपेक्षाकृत मंद होती हैं|
(2) अभिकारकों का सांद्रण-
सामान्यतः अभिकारकों की सांद्रता बढ़ाए जाने पर अभिक्रिया का वेग भी बढ़ता है क्योंकि अभिकारकों का सांद्रण बढ़ने पर उनके द्वारा आणविक टक्करों की संभावना भी बढ़ती है जिस कारण अभिक्रिया की दर बढ़ जाती है|
         किसी अभिक्रिया की दर पर अभिकारकों के सांद्रण के परिमाणात्मक संबंध का सबसे पहले गुलबर्ग तथा वागे ने अध्ययन किया तथा उन्होंने एक नियम दिया जिसे द्रव्य अनुपाती क्रिया का नियम कहा जाता है|
         इस नियम के अनुसार स्थिर ताप पर किसी अभिक्रिया की दर अभिकारकों के सक्रिय द्रव्यमान के गुणनफल के समानुपाती होती है यदि प्रत्येक सक्रिय द्रव्यमान पद पर संगत स्टॉयशियोमीट्रिक नियतांक की घात स्थित हो|
 सामान्य अभिक्रिया, 
aA + bB + cC  ------>  उत्पाद 
के लिए द्रव्य अनुपाती क्रिया के नियम के अनुसार,
अभिक्रिया की दर { [A]a × [B]b × [C]c
या, 
अभिक्रिया की दर= k [A]a × [B]b × [C]c
जहां k एक स्थिरंक है जिसे वेग स्थिरांक कहा जाता है|

जैसे -
निम्न अभिक्रिया के लिए
2NO + 2H2 ---> N2 + 2H2O 
अभिक्रिया की दर= k [NO]2 × [H2]2
(3) ताप -
सामान्यतः ताप का मान बढ़ाया जाने पर ऊष्माक्षेपी एवं ऊष्माशोषी दोनों प्रकार की अभिक्रियाओं का वेग बढ़ जाता है| अधिकांश समांग अभिक्रिया में 10°C  ताप बढ़ाए जाने पर अभिक्रिया का वेग लगभग दोगुना हो जाता है| अतः ताप का अभिक्रिया की दर पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है|
(4) उत्प्रेरक की उपस्थिति-
 उत्प्रेरक वह पदार्थ हैं जो अभिक्रिया के वेग को बढ़ा देते हैं तथा वे स्वयं अभिक्रिया में भाग नहीं लेते हैं| अभिक्रिया के अंत में इनके रासायनिक संगठन में कोई परिवर्तन नहीं होता है| उत्प्रेरक के द्वारा अभिक्रिया के वेग को बढ़ाने का कारण यह है कि यह न्यून उर्जा अवरोध का एक अन्य मार्ग देता है| ऊर्जा अवरोध में कमी के कारण अधिक संख्या में क्रियाकारी पदार्थ अभिक्रिया में भाग लेते हैं जिस कारण अभिक्रिया का वेग बढ़ जाता है|
(5) सतह क्षेत्रफल-
 यदि कोई अभिकारक ठोस है तो उसका सतह क्षेत्रफल बढ़ाए जाने पर अभिक्रिया की दर बढ़ती है| एक ठोस की तुलना में बारीक महीन या पिसे ठोस का सतह क्षेत्रफल अधिक होता है तथा यह अधिक तीव्र गति से किया करते हैं| जैसे- कोयले के एक बड़े टुकड़े की तुलना में उसका चूर्ण अधिक तेजी से जलता है|

Monday, December 28, 2020

अभिक्रिया की दर के प्रकार (Types of rate of reaction)

अभिक्रिया की दर के प्रकार 
(Types of rate of reaction)
रासायनिक अभिक्रिया के बलगतिकी अध्ययन में प्रायः दो प्रकार की अभिक्रियाओं की दर का प्रयोग किया जाता है|
 (1) औसत दर (Average rate )
(2) तात्क्षणिक दर (Instantaneous rate )

(1) अभिक्रिया की औसत दर
(Average rate of a reaction)-
किसी निश्चित समय अंतराल में प्रति इकाई समय में किसी भी क्रियाकारी पदार्थ या किसी भी उत्पाद के सांद्रण परिवर्तन को अभिक्रिया की औसत दर कहा जाता है|
        क्रियाकारी पदार्थ या उत्पाद के सांद्रण में होने वाले परिवर्तन को इस परिवर्तन में लगे समय अंतराल से भाग करके अभिक्रिया की औसत दर ज्ञात की जा सकती है|अतः 

अभिक्रिया की औसत दर = क्रियाकारी पदार्थ या उत्पाद के सांद्रण में परिवर्तन/परिवर्तन में लगा समय अंतराल

एक अभिक्रिया A -----> B 
के लिए दर को निम्न दो प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है-
(a) A के सांद्रण में कमी के रूप में- अभिक्रिया की औसत दर = A के सांद्रण में कमी / परिवर्तन में लगा समय अंतराल 
या, 
अभिक्रिया की औसत दर =-∆[A] /∆t
(b) B के सांद्रण में वृद्धि के रूप में- 
अभिक्रिया की औसत दर = B के सांद्रण में वृद्धि / परिवर्तन में लगा समय अंतराल 
या, 
अभिक्रिया की औसत दर =∆[B] /∆t

जैसे - अभिक्रिया, 
PCl5 ---> PCl3 + Cl2 के लिए 
अभिक्रिया की औसत दर =-∆[PCl5] /∆t = ∆[PCl3] /∆t = ∆[Cl2] /∆t 

इसी प्रकार अभिक्रिया, 
2N2O5 ---> 4NO2 + O2 के लिए 

अभिक्रिया की औसत दर =-1/2∆[N2O5] /∆t = 1/4∆[NO2] /∆t = ∆[O2] /∆t 

(2) अभिक्रिया की तात्क्षणिक दर
(Instantaneous rate of a reaction)-
किसी निश्चित क्षण पर अभिकारक या उत्पाद की सांद्रता में होने वाले परिवर्तन की दर को उस अभिक्रिया की तात्क्षणिक दर कहा जाता है|
       तात्क्षणिक दर के निर्धारण में समय अंतराल ∆t का मान बहुत छोटा लिया जाता है जिससे समय अंतराल में होने वाले दर परिवर्तन में परिवर्तन का मान न्यूनतम हो| गणित में इस मान को ∆ के स्थान पर d से व्यक्त करते हैं|
तात्क्षणिक दर = (औसत दर)∆t->0
अभिक्रिया, A---> B के लिए 
तात्क्षणिक दर = -d[A] /dt = d[B] /dt
उदाहरण के लिए अभिक्रिया, 
H2 + Cl2 ----> 2HCl के लिए
तात्क्षणिक दर = -d[H2] /dt = -d[Cl2] /dt = 1/2 d[HCl]/dt

Question -
एक बंद बर्तन में गैसीय प्रावस्था में रासायनिक अभिक्रिया 2A <==> 4B + C  संपन्न होती है| 10 सेकंड में B की सांद्रता में होने वाली वृद्धि 5×10´3mol/L है| निम्न की गणना कीजिए- (1) B के संभवन की दर 
(2) A के लुप्त होने की दर
Solution -
अभिक्रिया 2A <==> 4B + C  के लिए 
अभिक्रिया की दर =-1/2∆[A] /∆t = 1/4∆[B] /∆t = ∆[C] /∆t 
प्रश्नानुसार, ∆[B] =  5×10´3mol/L तथा ∆t = 10s 

(1) B के संभवन की दर = ∆[B] /∆t = 5×10´3 / 10 = 5×10´4 mol/L/s 

(2) A के लुप्त होने की दर =-∆[A] /∆t = 2/4∆[B] /∆t = 1/2×5×10´4 = 2.5×10´4 mol/L/s 

Sunday, December 27, 2020

रासायनिक बलगतिकी और अभिक्रिया की दर (अभिक्रिया का वेग) (Chemical kinetics and reaction rate)

रासायनिक बलगतिकी और अभिक्रिया की  दर (अभिक्रिया का वेग) 
(Chemical kinetics and reaction rate)

रासायनिक बलगतिकी   
(Chemical kinetics)- 
रसायन विज्ञान की वह शाखा जिसमें रासायनिक अभिक्रिया की दर तथा उनकी क्रियाविधि का अध्ययन किया जाता है रासायनिक बलगतिकी कहलाती है|

अभिक्रिया की  दर (अभिक्रिया का वेग) 
(Reaction rate)-
इकाई समय में किसी भी क्रियाकारी पदार्थ या किसी भी उत्पाद के सांद्रण में होने वाले परिवर्तन को अभिक्रिया का वेग या रासायनिक अभिक्रिया की दर कहा जाता है|
अभिक्रिया का वेग(अभिकारक की दर) = क्रियाकारी पदार्थ या उत्पाद के सांद्रण में परिवर्तन / परिवर्तन में लगा समय

अभिक्रिया की दर के मात्रक-
किसी रासायनिक अभिक्रिया की दर की इकाई molL-1s-1 या molL-1min-1 होती है | 
     किसी अभिक्रिया में यदि क्रियाकारी पदार्थ तथा उत्पाद गैसीय अवस्था में है तो अभिक्रिया के वेग को atms-1 या atm min-1 इकाई में व्यक्त किया जा सकता है|

अभिक्रिया के वेग के आधार पर अभिक्रियाओं के प्रकार-
(1) तात्क्षणिक अभिक्रिया-
वे रासायनिक अभिक्रिया जो बहुत ही जल्दी होती हैं उन्हें तात्क्षणिक अभिक्रियाएं कहा जाता है| इनको होने में लगभग 10´6 से 10`14 सेकंड का समय लगता है|
       इस प्रकार की अभिक्रियाओं को आयनिक अभिक्रियाएं या द्रुत अभिक्रियाएं भी कहा जाता है|
जैसे -
AgNO3 + NaCl ----> AgCl + NaNO3 
(2) मंद अभिक्रिया-
वे रासायनिक अभिक्रिया जो बहुत ही मंद गति से होती हैं उन्हें मंद अभिक्रियाएं कहा जाता है| इनको होने में कुछ महीनों का समय लगता है|
जैसे - लोहे पर जंग लगना 
(3) मध्यम गति अभिक्रिया-
वे रासायनिक अभिक्रिया जो न तो बहुत ही जल्दी होती हैं और न ही बहुत मंद गति से होती हैं उन्हें मध्यम गति अभिक्रियाएं कहा जाता है| 
इनको होने में कुछ मिनट या कुछ सेकंड का समय लगता है|
       इस प्रकार की अभिक्रियाओं को आणविक अभिक्रियाएं भी कहा जाता है|
जैसे -
PCl5 ----> PCl3 + Cl2


नर्स्ट समीकरण (Nernst Equation )

नर्स्ट समीकरण 
(Nernst Equation )
जब एक इलेक्ट्रोड निकाय मानक अवस्था (अर्थात आयनों का सांद्रण=1mol/L, T=298K तथा गैस का दाब=1atm) में स्थित होता है तो इसके मानक इलेक्ट्रोड विभव का मान सीधे विद्युतरासायनिक श्रेणी से प्राप्त किया जा सकता है| लेकिन यदि इलेक्ट्रोड निकाय मानक अवस्था में स्थित नहीं है (अर्थात इसका ताप 298K से भिन्न है,  आयनों का सांद्रण 1mol/L नहीं है तथा गैस का दाम 1atm  से भिन्न है) तो इसके इलेक्ट्रोड विभव को सीधे विद्युत रासायनिक श्रेणी से प्राप्त नहीं किया जा सकता है| इस प्रकार की स्थिति में इलेक्ट्रोड निकाय के इलेक्ट्रोड विभव के मान की गणना एक महत्वपूर्ण समीकरण की सहायता से की जाती है इस समीकरण को नर्स्ट समीकरण कहा जाता है|
       नर्स्ट समीकरण इलेक्ट्रोड विभव तथा इलेक्ट्रोड निकाय के ताप एवं निहित स्पीशीज के सांद्रण के मध्य एक संबंध स्थापित करती है| एक अपचयन इलेक्ट्रोड के लिए नर्स्ट समीकरण को निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है-

E=E°-RT/nF loge[अपचयित अवस्था]/[ऑक्सीकृत अवस्था]

जहाँ, 
E= इलेक्ट्रोड निकाय का अपचयन विभव 
E°= उसी इलेक्ट्रोड निकाय का मानक अपचयन विभव 
R= गैस स्थिरांक = 8.314J/Kmol 
T= इलेक्ट्रोड निकाय का ताप 
F= एक  फैराडे = 96500 कूलम्ब 
n= इलेक्ट्रोड पर संपन्न अपचयन प्रक्रिया में ऑक्सीकृत अवस्था के 1 मोल द्वारा अपचयित अवस्था में परिवर्तित होने के लिए ग्रहण किए गए इलेक्ट्रॉनों के मोलों की संख्या
[अपचयित अवस्था] = अपचयित होने वाले पदार्थ का सांद्रण 
[ऑक्सीकृत अवस्था] = अपचयन से प्राप्त पदार्थ का सांद्रण 

जैसे -अभिक्रिया 
Mn+(aq) + ne´ ----> M(s) के लिए 
EMn+/M = E°Mn+/M - RT/nF loge [M(s)] / [Mn+(aq)]

चूँकि एक ठोस के सांद्रण को इकाई माना जाता है अर्थात  [M(s)] = 1
अतः, 
Question - निम्न अभिक्रिया के लिए E.M.F.  की गणना कीजिये 
Mg/Mg2+(0.001M) // Cu2+(0.0001)/Cu 
(दिया है = E° = 2.71V)
Solution -  


Saturday, December 26, 2020

विद्युतरासायनिक श्रेणी (Electrochemical series)

विद्युतरासायनिक श्रेणी (Electrochemical series)

मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड द्वारा किसी भी इलेक्ट्रोड निकाय का मानक इलेक्ट्रोड विभव का मापन किया जा सकता है| विभिन्न इलेक्ट्रोड निकायों के मानक इलेक्ट्रोड विभव (अर्थात मानक अपचयन विभव) के इस प्रकार मापित मानो को एक बढ़ते हुए क्रम में व्यवस्थित किया जा सकता है| इस प्रकार प्राप्त व्यवस्था एक अत्यंत महत्वपूर्ण श्रेणी का निर्माण करती है जिसे विद्युत रासायनिक श्रेणी कहा जाता है| इस प्रकार विद्युत रासायनिक श्रेणी विभिन्न इलेक्ट्रोड निकायों के मानक अपचयन विभव के बढ़ते क्रम में व्यवस्था है| कुछ महत्वपूर्ण इलेक्ट्रोड निकायों तथा उनकी अर्द्ध सेल अभिक्रिया युक्त विद्युत रासायनिक श्रेणी निम्न है-
विद्युतरासायनिक श्रेणी की महत्वपूर्ण विशेषताएं-
(1) हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड के साथ जोड़े जाने पर मानक अपचयन विभव के ऋणात्मक मान युक्त इलेक्ट्रोड निकाय एनोड का तथा धनात्मक मान युक्त निकाय कैथोड का कार्य करते हैं|
(2) श्रेणी में ऊपर से नीचे की ओर जाने पर इलेक्ट्रॉनों को ग्रहण करने की प्रवृति अर्थात अपचयित होने की प्रवृत्ति में वृद्धि होती है|
(3) श्रेणी में नीचे से ऊपर की ओर जाने पर इलेक्ट्रॉनों को त्यागने की प्रवृति अर्थात ऑक्सीकृत होने की प्रवृत्ति में वृद्धि होती है|
(4) श्रेणी में हाइड्रोजन के ऊपर स्थित पदार्थों की अपचयित रूप हाइड्रोजन से अधिक प्रबल अपचायक हैं जबकि हाइड्रोजन के नीचे स्थित पदार्थों के अपचयित रूप हाइड्रोजन की तुलना में दुर्बल अपचायक हैं| इस प्रकार किसी भी पदार्थ का अपचयित रूप श्रेणी में अपने से नीचे स्थित किसी भी पदार्थ के ऑक्सीकृत रूप को अपचयित कर सकता है|

विद्युतरासायनिक श्रेणी के अनुप्रयोग-
(1) धातुओं की क्रियाशीलता का पता लगाने में
(2) एक रेडॉक्स अभिक्रिया के होने की संभावना का पता लगाने में
(3) लवण विलयनों से धातुओं का विस्थापन का पता लगाने में
(4) धातुओं द्वारा तनु अम्लों से हाइड्रोजन का विस्थापन
(5) धातुओं के विद्युत धनात्मक लक्षण तथा उनके ऑक्साइडों का उष्मीय स्थायित्व जानने में
(6) मानक सेल विभव(E°cell) की गणना करने में

मानक इलेक्ट्रोड विभव का मापन (Measurement of standard electrode potential)

मानक इलेक्ट्रोड विभव का मापन (Measurement of standard electrode potential)
किसी एकल इलेक्ट्रोड के इलेक्ट्रोड विभव को मापने के लिए उसे एक मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड के साथ जोड़कर एक गैल्वेनिक सेल का निर्माण किया जाता है और दोनों इलेक्ट्रोडो के मध्य के विभांतर को मापा जाता है| चूँकि मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड का इलेक्ट्रोड विभव 0 माना जाता है| अतः मापा गया विभवांतर ही प्रयुक्त एकल इलेक्ट्रोड के इलेक्ट्रोड विभव के संख्यात्मक मान के बराबर होता है|
         विभवांतर को बाह्य परिपथ में जुड़े वोल्टमीटर या विभवमापी से माप लिया जाता है| मापा गया मान ही प्रयुक्त अर्द्ध सेल के विभव के संख्यात्मक मान के बराबर होता है, क्योंकि परिपाटी के अनुसार मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड के विभव को 0 माना जाता है|
     उपरोक्त विधि से मापे गए इलेक्ट्रोड के चिन्ह (+या -) को विद्युत धारा के प्रवाह की दिशा सुनिश्चित कर निर्धारित किया जा सकता है| एक गैलवेनिक सेल में इलेक्ट्रॉन एनोड (ऑक्सीकरण इलेक्ट्रोड) से कैथोड (अपचयन इलेक्ट्रोड) की ओर गति करते हैं| विद्युत धारा के प्रवाह की दिशा इलेक्ट्रॉनों के प्रवाह की दिशा के विपरीत मानी जाती है| मानक अवस्था में एक गेलवेनिक सेल का एनोड तथा कैथोड के मध्य स्थित विभवांतर को E°cell से निरूपित किया जाता है तथा इसे निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है-
    E°cell = E°cathode - E°anode 
 जहां E°cathode तथा E°anode क्रमशः कैथोड तथा एनोड के मानक अपचयन विभव हैं|
जैसे -
Zn2+/Zn इलेक्ट्रोड के मानक इलेक्ट्रोड विभव का मापन-
जब 1mol/L सांद्रण के Zn2+ आयन  विलयन में आंशिक रूप से डूबी एक Zn छड़ से निर्मित इलेक्ट्रोड को एक मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड के साथ जोड़ा जाता है तो विद्युत धारा हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड से Zn  इलेक्ट्रोड की ओर प्रवाहित होती है तथा वोल्टमीटर 0.76 V के विभवांतर को इंगित करता है| स्पष्ट है कि इस सैल में  इलेक्ट्रॉन Zn इलेक्ट्रोड से हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड की ओर प्रवाहित होते हैं| अतः इस सेल में जिंक इलेक्ट्रोड एनोड है तथा हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड कैथोड है| अतः, 
  E°cell = E°cathode - E°anode 
या, 0. 76 = E°H+/1/2H2 - E°Zn2+/Zn 
या, 0.76 = 0 - E°Zn2+/Zn 
या, E°Zn2+/Zn = -0. 76
इस प्रकार Zn2+/Zn इलेक्ट्रोड का मानक इलेक्ट्रोड विभव ऋणात्मक है तथा इसका मान -0.76V  है|

Cu2+/Cu इलेक्ट्रोड के मानक इलेक्ट्रोड विभव का मापन-
जब 1mol/L सांद्रण के Cu2+ आयन  विलयन में आंशिक रूप से डूबी एक Cu  छड़ से निर्मित इलेक्ट्रोड को एक मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड के साथ जोड़ा जाता है तो विद्युत धारा कॉपर इलेक्ट्रोड से हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड की ओर प्रवाहित होती है तथा वोल्टमीटर 0.34 V के विभवांतर को इंगित करता है| स्पष्ट है कि इस सैल में  इलेक्ट्रॉन H इलेक्ट्रोड से Cu  इलेक्ट्रोड की ओर प्रवाहित होते हैं| अतः इस सेल में H इलेक्ट्रोड एनोड है तथा Cu  इलेक्ट्रोड कैथोड है| अतः, 
  E°cell = E°cathode - E°anode 
या, 0.34 = E°Cu2+/Cu -E°H+/1/2H2 
या, 0.34 = E°Cu2+/Cu - 0 
या, E°Cu2+/Cu = +0.34
इस प्रकार Cu2+/Cu इलेक्ट्रोड का मानक इलेक्ट्रोड विभव धनात्मक है तथा इसका मान +0.34V  है|



मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड (Standard Hydrogen Electrode)

मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड (Standard Hydrogen Electrode)

मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड को प्राप्त करने के लिए शुद्ध हाइड्रोजन गैस को 1 वायुमंडलीय दाब पर 1mol/L  सांद्रण के एक H+ आयन विलयन में प्लैटिनीकृत प्लैटिनम पर्णिका के संपर्क में प्रवाहित किया जाता है| एक मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड को निम्न प्रकार से निरूपित किया जाता है-
Pt,H2(g)(1atm) / H+(1mol/L)
 मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड एक एनोड तथा एक कैथोड दोनों की भांति व्यवहार कर सकता है| संबंधित अर्द्ध सेल अभिक्रियाएं निम्न हैं-
 जब इलेक्ट्रोड एनोड की भांति कार्य करता है, 
1/2 H2(g)----> H+(aq) + e´
       E°1/2 H2/H+
जब इलेक्ट्रोड कैथोड की भांति कार्य करता है, 
H+(aq) + e´----> 1/2 H2(g)
       E°H+/1/2 H2
परिपाटी के अनुसार एक मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड के विभव को 0 माना जाता है| इस प्रकार, 
E°1/2 H2/H+ = E°H+/1/2 H2 = 0

एक मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड में एक छोटी प्लैटिनम पर्णिका का प्रयोग किया जाता है| हाइड्रोजन गैस को अवशोषित करने के लिए इस पर प्लैटिनम ब्लैक की एक परत चढ़ा दी जाती है| यह पर्णिका एक प्लैटिनम के तार से जुड़ी रहती है जिसके दूसरे सिरे को एक कांच की नली में सील कर दिया जाता है| कांच की नली में थोड़ा सा पारा भर दिया जाता है| तांबे के एक तार के एक सिरे को पारे में डूबा दिया जाता है| इस तार के दूसरे सिरे का उपयोग विद्युत संपर्क के लिए किया जाता है| कांच की नली को एक अन्य कांच की नली में स्थिर कर दिया जाता है| यह नली तली में खुली होती है| इस संपूर्ण निकाय को एक बड़े कांच के बीकर में रखें 1M HCl  विलयन में रखा जाता है| बाह्य नली से हाइड्रोजन गैस को 1 वायुमंडलीय दाब पर प्रवाहित किया जाता है, जो विलयन में बुलबुलों के रूप में विसरित होती रहती है| इस गैस का एक भाग प्लैटिनिकृत इलेक्ट्रोड द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है| शेष गैस नली के निम्न भाग में बने छिद्रों से बाहर निकल जाती है|
     मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड को संक्षेप में SHE ( Standard hydrogen electrode) या NHE (Normal hydrogen electrode)  के रूप में व्यक्त किया जाता है|

Wednesday, December 23, 2020

मानक इलेक्ट्रोड विभव (Standard Electrode Potential)

मानक इलेक्ट्रोड विभव (Standard Electrode Potential) 
किसी इलेक्ट्रोड विभव को उस समय मानक इलेक्ट्रोड विभव कहा जाता है जबकि निम्न शर्तों का पूर्ण रुप से पालन हो-
(1)  इलेक्ट्रोड निकाय का ताप 298 K  (25°C) हो|
(2) इलेक्ट्रोड निकाय में उपस्थित विलयन का सांद्रण एक मोल प्रति लीटर(1mol/L) हो|
(3) यदि इलेक्ट्रोड निकाय में किसी गैस का प्रयोग किया गया है तो उसका दाब एक वायुमंडल (1atm) हो|
         मानक इलेक्ट्रोड विभव को E° से निरूपित किया जाता है| जब मानक अवस्थाओं में एक इलेक्ट्रोड पर ऑक्सीकरण प्रक्रिया द्वारा विभव उत्पन्न होता है तो उसे मानक ऑक्सीकरण विभव कहा जाता है तथा इसे E°oxi या E°M/Mn+ से निरूपित किया जाता है| इसी प्रकार मानक अवस्थाओं में अपचयन की प्रक्रिया से उत्पन्न विभव को मानक अपचयन विभव कहा जाता है तथा इसे E°red या E°Mn+/M  से निरूपित किया जाता है| एक इलेक्ट्रोड विशेष के लिए इन दोनों प्रकार के विभव के संख्यात्मक मान समान होते हैं लेकिन उनके चिन्ह विपरीत होते हैं अर्थात 
E°M/Mn+ =   -E°Mn+/M
जैसे, E°Zn/Zn2+ =   -E°Zn2+/Zn 
I.U.P.A.C. के अनुसार पद मानक विभव का प्रयोग अपचयन अभिक्रियाओं के लिए किया जाना चाहिए| इसलिए पद मानक विभव या मानक इलेक्ट्रोड विभव का प्रयोग मानक अपचयन विभव को इंगित करने के लिए किया जाता है|
मानक इलेक्ट्रोड विभव का मापन-
एक एकल इलेक्ट्रोड पर या तो कोई ऑक्सीकरण या अपचयन अभिक्रिया संपन्न होती है जो उसे विभव प्रदान करती है| चूँकि ऑक्सीकरण तथा अपचयन अभिक्रियाएं एक दूसरे के पूरक है| अतः किसी एकल इलेक्ट्रोड के इलेक्ट्रोड विभव का निरपेक्ष मान मापना संभव नहीं है| लेकिन दो इलेक्ट्रोडो के मध्य स्थित विभवांतर को आसानी से मापा जा सकता है| अतः किसी एकल इलेक्ट्रोड के विभव को केवल एक मानक संदर्भ इलेक्ट्रोड के सापेक्ष ही मापा जा सकता है| मानक संदर्भ इलेक्ट्रोड के रूप में मानक हाइड्रोजन इलेक्ट्रोड का प्रयोग किया जाता है और उसके सापेक्ष ही अन्य इलेक्ट्रोडो के इलेक्ट्रोड विभव को मापा जाता है|

Sunday, December 20, 2020

इलेक्ट्रोड विभव (Electrode potential )

इलेक्ट्रोड विभव (Electrode potential )
एक विलयन में उपस्थित स्वयं के आयनों के संपर्क में स्थित एक इलेक्ट्रोड की इलेक्ट्रॉनों को त्यागने की या इलेक्ट्रॉनों को ग्रहण करने की प्रवृत्ति को उस इलेक्ट्रोड का इलेक्ट्रोड विभव कहा जाता है|
       जब एक धातु को उसके स्वयं के आयनों के संपर्क में रखा जाता है तो उसमें प्रायः इलेक्ट्रॉनों को त्यागने की या ग्रहण करने की प्रवृत्ति होती है| माना कि एक धातु M अपने आयनों Mn+ के संपर्क में है| इस प्रकरण में निम्न तीन संभावनाएं हो सकती हैं-
संभावना 1- एक धातु आयन, Mn+ इलेक्ट्रोड से टकराये और किसी में कोई परिवर्तन न हो, अर्थात इलेक्ट्रोड पर न तो ऑक्सीकरण और न ही अपचयन अभिक्रियाएं संपन्न होती हैंं तो उस पर कोई विभव उत्पन्न नहीं होता है| उस इलेक्ट्रोड को शून्य इलेक्ट्रोड या नल इलेक्ट्रोड कहा जाता है| 
संभावना 2 - इलेक्ट्रोड पर उपस्थित एक धातु परमाणु n इलेक्ट्रॉनों को त्यागकर Mn+ आयन के रूप में विलयन में चला जाए अर्थात धातु परमाणु ऑक्सीकृत हो जाए|
M(s) ----> Mn+(aq) + ne´
इस प्रकरण में इलेक्ट्रोड पर एक ऋणात्मक विभव उत्पन्न हो जाता है| इस प्रकार उत्पन्न विभव को ऑक्सीकरण विभव कहा जाता है तथा इलेक्ट्रोड निकाय को एक ऑक्सीकरण इलेक्ट्रोड कहा जाता है|
ऑक्सीकरण विभव को Eoxi या EM/Mn+ से प्रदर्शित किया जाता है|
 संभावना 3 - एक धातु आयन इलेक्ट्रोड से टकराकर उससे n इलेक्ट्रॉनों को ग्रहण करें तथा एक उदासीन धातु परमाणु M  में परिवर्तित हो जाए अर्थात धातु आयन अपचयित हो जाए|
Mn+(aq) + ne´------> M(s)
       इस प्रकरण में इलेक्ट्रोड पर एक धनात्मक विभव उत्पन्न हो जाता है| इस प्रकार उत्पन्न विभव को अपचयन विभव कहा जाता है तथा इलेक्ट्रोड निकाय को एक अपचयन इलेक्ट्रोड कहा जाता है|
        अपचयन विभव को Ered या EMn+/M से प्रदर्शित किया जाता है|

सेल अभिक्रिया एवं गिब्स मुक्त ऊर्जा (Cell reaction and Gibbs free energy )

सेल अभिक्रिया एवं गिब्स मुक्त ऊर्जा (Cell reaction and Gibbs free energy )-
एक गैल्वेनिक सेल में विद्युत धारा की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी रासायनिक अभिक्रिया एक रेडॉक्स अभिक्रिया होती है| इस रेडॉक्स अभिक्रिया को ही उस सेल की सेल अभिक्रिया कहा जाता है|
 जैसे -
इस सेल में 
ऑक्सीकरण अर्द्ध सेल अभिक्रिया 
Zn ----> Zn2+  +  2e´
अपचयन अर्द्ध सेल अभिक्रिया 
Cu2+  +  2e´ ---->  Cu 
इस सेल की सेल अभिक्रिया निम्न होगी- 
Zn + Cu2+  ----> Zn2+  +  Cu 
उपरोक्त रेडॉक्स अभिक्रिया ही डेनियल सेल द्वारा विद्युत धारा की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी है|
 
एक गैल्वेनिक सेल रासायनिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करता है| कार्य करने की दशा में अर्थात सेल अभिक्रिया के संपन्न होने की दशा में सेल विद्युत आवेश को बाह्य परिपथ में प्रेषित कर एक विद्युत कार्य संपन्न करता है| सेल में किया गया वैद्युत कार्य सेल की मुक्त ऊर्जा में कमी के संगत होता है| सेल अभिक्रिया में निहित मुक्त ऊर्जा परिवर्तन तथा सेल के सेल विभव ( EMF) के मध्य एक निश्चित संबंध है|
 जब सेल उत्क्रमणीय रूप में विद्युत कार्य करता है अर्थात सेल से एक अनंत अल्प विद्युत धारा ली जाती है तो मुक्त ऊर्जा परिवर्तन सेल के द्वारा किए गए वैद्युत कार्य के बराबर होता है| अतः
        ∆rG = w elect
माना कि गैल्वेनिक सेल में संपन्न होने वाली सेल अभिक्रिया में इलेक्ट्रॉनों के  n मोलों  का स्थानांतरण होता है तथा सेल का सेल विभव(EMF) E है तो
  सेल अभिक्रिया में निहित कुल आवेश = nF 
 जहां F  फैराडे स्थिरांक है|
 अतः सेल द्वारा संपन्न वैद्युत कार्य,
      w elect = आवेश × EMF
या, 
          w elect = -nFEcell
या, 
          ∆rG =  -nFEcell
चूँकि तंत्र द्वारा किया गया कार्य ऋणात्मक माना जाता है|
यदि सेल मानक अवस्थाओं में कार्य कर रहा है तो
        ∆rG° =  -nFE°cell


गैल्वेनिक सेल( Galvanic cell)

गैल्वेनिक सेल ( Galvanic cell)
गैल्वेनिक सेल उस युक्ति को कहा जाता है जिसमें रासायनिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है| गैल्वेनिक सेल का निर्माण सर्वप्रथम एलिसांद्रो वोल्टा ने सन 1796 में किया था| इसलिए गैल्वेनिक सेलों को वोल्टाइक सेल भी कहा जाता है| एक गैल्वेनिक सेल स्वयं में संपन्न एक रेडॉक्स अभिक्रिया के फलस्वरुप विद्युत धारा उत्पन्न करता है| वोल्टा सेल,  डैनियल सेल, लेक्लांशे सेल, शुष्क सेल आदि इस प्रकार के सेलों के कुछ उदाहरण हैं |

एक गैल्वेनिक सेल का निर्माण -
एक गैल्वेनिक सेल में विद्युत ऊर्जा की उत्पत्ति सदैव एक रेडॉक्स अभिक्रिया के फलस्वरुप ही होती है| अतः एक उपयुक्त ऑक्सीकरण इलेक्ट्रोड को एक उपयुक्त अपचयन इलेक्ट्रोड के साथ जोड़कर एक गैल्वेनिक सेल का निर्माण किया जा सकता है| दोनों इलेक्ट्रोडों में निहित विलयनों को या तो एक सरंध्र डायाफ्राम के माध्यम से या एक लवण सेतु के माध्यम से परस्पर विद्युत संपर्क में लाया जा सकता है| वाह्य परिपथ में दोनों इलेक्ट्रोडों को एक ऐसी युक्ति से जोड़ दिया जाता है जो विद्युत ऊर्जा का उपयोग कर सकें|
         ऑक्सीकरण इलेक्ट्रोड पर संपन्न होने वाली ऑक्सीकरण क्रिया के फलस्वरुप इलेक्ट्रॉन उत्सर्जित होते हैं| यदि इन इलेक्ट्रॉनों को वहां से न हटाया जाए तो वे इलेक्ट्रोड पर एकत्रित होकर उसे ऋणात्मक विभव प्रदान करते हैं| अपचयन इलेक्ट्रोड पर अपचयन क्रिया के कारण एक धनात्मक विभव उत्पन्न होता है| जब दोनों इलेक्ट्रोडों को आंतरिक तथा बाह्य परिपथ में जोड़ा जाता है तो इलेक्ट्रॉन बाह्य परिपथ में ऑक्सीकरण इलेक्ट्रोड से अपचयन इलेक्ट्रोड की ओर गति करने लगते हैं| इलेक्ट्रॉनों का यह प्रवाह दोनों इलेक्ट्रोडों के मध्य स्थित विभवांतर के कारण होता है| इस प्रकार एक विद्युत धारा उत्पन्न हो जाती है| वह इलेक्ट्रोड जिस पर ऑक्सीकरण प्रक्रिया संपन्न होती है एनोड कहलाता है तथा जिस इलेक्ट्रोड पर अपचयन क्रिया संपन्न होती है उसे कैथोड कहा जाता है| यह ध्यान देने योग्य बात है कि एक गैल्वेनिक सेल में एनोड की ध्रुवता ऋणात्मक तथा कैथोड की ध्रुवता धनात्मक होती है|
 जैसे-
 यदि एक ऑक्सीकरण इलेक्ट्रोड Zn/Zn2+ को एक अपचयन इलेक्ट्रोड Cu2+/Cu  के साथ जोड़ दिया जाए तो एक डेनियल सेल प्राप्त होता है|
       ऑक्सीकरण इलेक्ट्रोड(एनोड )  पर Zn परमाणु  Zn2+ आयनों के रूप में (Zn ----> Zn2+   +  2e´) विलयन में प्रवाहित होते हैं जबकि अपचयन इलेक्ट्रोड (कैथोड) पर Cu2+ आयन  Cu परमाणु में परिवर्तित होते हैं (Cu2+  + 2e´ -----> Cu) |
    विभवांतर के कारण Zn छड़ पर मुक्त हुए इलेक्ट्रॉन धन आवेश युक्त Cu छड़  की ओर गति करते हैं और इस प्रकार बाह्य परिपथ में विद्युत धारा प्रवाहित होने लगती है|
 लवण सेतु तथा इसकी कार्यप्रणाली-
लवण सेतु U  के आकार की एक कांच की नली होती है जिसमें किसी निष्क्रिय विद्युत अपघट्य जैसे- KCl, KNO3, K2SO4 आदि का सांद्र विलयन या इनमें से किसी विद्युत अपघट्य का एगर-एगर तथा जिलेटिन में बना अर्द्ध ठोस विलयन भरा होता है| यहाँ निष्क्रिय विद्युत अपघटन से तात्पर्य एक ऐसे विद्युत अपघट्य से है जो न तो सेल में निहित रेडॉक्स अभिक्रिया में भाग लेता है और न ही दोनों इलेक्ट्रोड में उपस्थित विलयनों से क्रिया करता हो|
    लवण सेतु मुख्य रूप से निम्न दो कार्यों को संपन्न करता है-
(1) यह एक अर्द्ध सेल से दूसरे अर्द्ध सेल में आयनों के परिगमन को सुगम बनाकर विद्युत परिपथ को पूर्ण करता है|
(2)  यह दोनों अर्द्ध सेलों में उपस्थित विलयनों की विद्युतीय उदासीनता को अक्षुण्ण बनाए रखता है|

अर्द्ध सेल की धारणा-
एक गैल्वेनिक सेल को एक ऑक्सीकरण इलेक्ट्रोड तथा एक अपचयन इलेक्ट्रोड को जोड़कर प्राप्त किया जा सकता है| प्रत्येक इलेक्ट्रोड निकाय को एक अर्द्ध सेल कहा जाता है| इस प्रकार एक गैल्वेनिक सेल दो अर्द्ध सेलों से मिलकर बना होता है|
      जिस अर्द्ध सेल में ऑक्सीकरण क्रिया संपन्न होती है उसे ऑक्सीकरण अर्द्ध सेल या एनोडिक अर्द्ध सेल कहा जाता है तथा जिसमें अपचयन अभिक्रिया संपन्न होती है उसे अपचयन अर्द्ध सेल या कैथोडिक अर्द्ध सेल कहा जाता है|
जैसे -
Zn -----> Zn2+  +  2e´ (ऑक्सीकरण अर्द्ध सेल )

Cu2+  +  2e´ ---->  Cu (अपचयन अर्द्ध सेल )

एक गैल्वेनिक सेल का निरूपण -
IUPAC के अनुसार एक गैल्वेनिक सेल को निरूपित करने के लिए निम्न परिपाटी का प्रयोग किया जाता है-
(1) एक अर्द्ध सेल को इलेक्ट्रोड की भांति कार्य कर रही धातु के संकेत तथा धातु के संपर्क में स्थित विद्युत अपघट्य के आयन के संकेत के मध्य एक उर्ध्व रेखा खींचकर निरूपित किया जाता है| उर्ध्व रेखा प्रावस्था सीमा को निरूपित करती है| ऑक्सीकरण अर्द्ध सेल को निरूपित करते समय अपचयित अवस्था को बाईं ओर तथा अपचयन अर्द्ध सेल को निरूपित करते समय अपचयित अवस्था को निम्न प्रकार से दायीं ओर लिखा जाता है-
M/Mn+(aq)              Mn+(aq)/M ( Anode)                   (Cathode )   
जैसे -
Zn/Zn2+(aq)         Cu2+(aq)/Cu  (Anode)                   (Cathode ) 

(2) विलयन के मोलर सांद्रण को आयन के सूत्र के पश्चात कोष्ठक में व्यक्त किया जाता है| 
जैसे-  
Zn/Zn2+(c1)         Cu2+(c2)/Cu  

(3) एक गैल्वेनिक सेल को निरूपित करते समय ऑक्सीकरण इलेक्ट्रोड (एनोड) को सदैव बायीं ओर तथा अपचयन इलेक्ट्रोड (कैथोड) को सदैव दायीं ओर लिखा जाता है| दोनों इलेक्ट्रोडों में उपस्थित विलयनों के सीधे संपर्क (एक सरंध्र डायाफ्राम के माध्यम से) को एक उर्ध्व रेखा(|) से तथा दोनों विलयनों के लवण सेतु के माध्यम से संपर्क को दो समानांतर उर्ध्व रेखाओं (||)से निरूपित करते हैं|
 जैसे-
विलयन का सीधा सम्पर्क 
Zn/Zn2+(c1)   |   Cu2+(c2)/Cu  (Anode)                (Cathode ) 
लवण सेतु द्वारा सम्पर्क 
Zn/Zn2+(c1)  ||   Cu2+(c2)/Cu  (Anode)                (Cathode ) 

मोलर चालकता का सांद्रण के साथ परिवर्तन(Variation of Molar conductivity with concentration)

मोलर चालकता का सांद्रण के साथ परिवर्तन(Variation of Molar conductivity with concentration

(A) प्रबल विद्युत अपघट्यों के लिए मोलर चालकता का सांद्रण के साथ परिवर्तन-
एक प्रबल विद्युत अपघट्य (जैसे KCl, HCl आदि) की मोलर चालकता विलयन के सांद्रण में वृद्धि करने पर मंद गति से घटती है|
   विलयन के सांद्रण को कम करने पर (अर्थात तनुता को बढ़ाने पर) एक प्रबल विद्युत अपघट्य विलयन की मोलरता चालकता एक सीमांत मान की ओर अग्रसर होती है| सांद्रण के शून्य की ओर अग्रसर होने की दशा में प्राप्त मोलर चालकता का सीमांत मान को अनंत तनुता पर विलयन की मोलर चालकता कहा जाता है| इसे ^m°° से निरूपित किया जाता है|
     एक प्रबल विद्युत अपघट्य सभी तनुताओं पर लगभग पूर्णरूपेण आयनित होता है| जब किसी प्रबल विद्युत अपघट्य विलयन के सांद्रण में वृद्धि (अर्थात तनुता में कमी) की जाती है तो प्रति इकाई आयतन में उपस्थित अणुओं की संख्या अधिक हो जाती है| इसके कारण विपरीत आवेश युक्त आयन एक दूसरे से अधिक निकट आ जाते हैं और अधिक अंतरआयनिक आकर्षण का अनुभव करते हैं| इसके फलस्वरुप विलयन की मोलर चालकता कम हो जाती है| यही कारण है कि सांद्रण में वृद्धि करने पर एक प्रबल विद्युत अपघट्य विलयन की मोलर चालकता में अल्प कमी दिखाई देती है| इसके विपरीत विलयन के सांद्रण में कमी (अर्थात तनुता में वृद्धि) करने पर प्रति इकाई आयतन में उपस्थित आयनों की संख्या कम हो जाती है जिससे अंतरआयनिक आकर्षण कम हो जाता है और मोलर चालकता में अल्प वृद्धि प्राप्त होती है| यही कारण है की सांद्रण में कमी (तनुता में वृद्धि) करने पर एक प्रबल विद्युत अपघट्य विलयन की चालकता में अल्प वृद्धि प्राप्त होती है|

(B) दुर्बल विद्युत अपघट्यों के लिए मोलर चालकता का सांद्रण के साथ परिवर्तन-
दुर्बल विद्युत अपघट्य (जैसे- CH3COOH, NH4OH, HCN आदि) विलयन में बहुत कम मात्रा में वियोजित (आयनित) होते हैं| इसलिए समान सांद्रण के एक प्रबल विद्युत अपघट्य विलयन की तुलना में एक दुर्बल विद्युत अपघट्य विलयन में उपस्थित आयनों की संख्या बहुत कम होती है| अतः एक दुर्बल विद्युत अपघट्य विलयन की मोलर चालकता का मान प्रबल विद्युत अपघट्य विलयन की मोलर चालकता के मान से काफी कम पाया जाता है|

कोल्हराऊश का नियम (Kohlrausch's law)-
कोल्हराऊश ने सन 1875 में अनेक प्रबल विद्युत अपघट्यों की अनंत तनुता पर चालकताओं(^m°°) का गहन अध्ययन किया और एक नियम दिया जिसे  कोल्हराऊश का नियम कहा जाता है| इस नियम के अनुसार-
       किसी विद्युत अपघट्य की अनंत तनुता पर चालकता इसके धनायनों तथा ऋणायनों की मोलर चालकताओं के योग के बराबर होती है, यदि प्रत्येक चालकता पद को विद्युत अपघट्य के सूत्र में उपस्थित संगत आयनों की संख्या से गुणा किया जाए|
   यदि किसी विद्युत अपघट्य के धनायनों तथा ऋणायनों की अनंत तनुता पर मोलर चालकताओं को क्रमशः तथा से निरूपित किया जाए तो कोलराउश के नियमानुसार-
जैसे -

Friday, December 18, 2020

विद्युत अपघटनी चालकता का मापन( Measurement of electrolytic conductivity)

विद्युत अपघटनी चालकता का मापन (Measurement of electrolytic conductivity)-
एक विलयन की विद्युत चालकता उसके प्रतिरोध के व्युत्क्रम के बराबर होती है| अतः किसी विलयन की विद्युत अपघटनी चालकता का मापन उसके प्रतिरोध को मापकर किया जा सकता है| एक विद्युत अपघट्य विलयन के प्रतिरोध को चालकता सेल तथा व्हीटस्टोन सेतु की सहायता से आसानी से मापा जा सकता है|
(a) चालकता सेल तथा सेल स्थिरांक-
किसी विलयन के एक निश्चित आयतन के प्रतिरोध को मापने के लिए एक विशेष प्रकार के सेल का प्रयोग किया जाता है, जिसे चालकता सेल कहा जाता है| यह सेल पायरेक्स कांच का बना होता है तथा इसमें दो प्लैटिनम इलेक्ट्रोड एक दूसरे से एक निश्चित दूरी पर स्थित होते हैं| अनेक प्रकार के चालकता सेल प्रयोग में लाए जाते हैं| एक चालकता सेल में दोनों इलेक्ट्रोड के मध्य की दूरी(l) तथा उनके क्षेत्रफल(A) नियत होते हैं| इसलिए, एक चालकता सेल विशेष के लिए l/A  का मान स्थिर रहता है| इस स्थिर राशि को सेल स्थिरांक कहा जाता है| इस प्रकार,              सेल स्थिरांक = l/A 
 सेल स्थिरांक का मात्रक cm-1 या m-1 हैं|
(b) व्हीटस्टोन सेतु-
इस सेतु की सहायता से किसी तार या विद्युत अपघट्य विलयन के प्रतिरोध को आसानी से मापा जा सकता है| इसमें प्रतिरोध R1,  R2,  R3 तथा X  युक्त चार भुजाएं परस्पर एक गैल्वेनोमीटर(G), एक बैटरी तथा एक कुंजी(K) के द्वारा चित्र में दर्शाए अनुसार एक दूसरे से जुड़ी रहती हैं| प्रतिरोध R2 परिवर्तनीय होता है जबकि प्रतिरोध X वह अज्ञात प्रतिरोध है जिसका मान मापना है| प्रतिरोध R1 तथा R3 ज्ञात प्रतिरोध हैं|
     कुंजी K  की सहायता से परिपथ को पूर्ण करने के बाद परिवर्तनीय प्रतिरोध R2 को इस प्रकार समायोजित किया जाता है कि शून्य विक्षेप स्थिति प्राप्त हो जाए| यह  वह स्थिति है जबकि गैल्वेनोमीटर में कोई विक्षेप नहीं होता| इस स्थिति में व्हीटस्टोन सेतु सिद्धांत के अनुसार, 
     R1/R2 = X/R3
या,   X = R1R3 / R2
(c) विद्युत अपघटनी चालकता का मापन-
विद्युत अपघटनी चालकता के मापन के लिए चालकता सेल में विद्युत अपघट्य विलयन को भरकर उसे व्हीटस्टोन सेतु से X  प्रतिरोध की जगह पर जोड़ दिया जाता है और बैटरी से धारा प्रवाहित करके व्हीटस्टोन सिद्धांत के अनुसार X  का मान ज्ञात कर लिया जाता है|
    हमें यह पता है कि प्रतिरोध के व्युत्क्रम के बराबर उस विद्युत अपघट्य विलयन की चालकता होती है| अतः विद्युत अपघटन विलयन की चालकता को माप  लिया जाता है|
   विद्युत् चालकता C = 1/X 

Wednesday, December 16, 2020

विद्युत अपघटनी विलयनों का चालकत्व( Electrolytic Conduction )

विद्युत अपघटनी विलयनों का चालकत्व (Electrolytic Conduction )-
किसी चालक से विद्युत धारा के प्रवाह की सहजता को उस चालक की विद्युत चालकता कहा जाता है| किसी विद्युत अपघट्य विलयन से विद्युत धारा के प्रवाह की सहजता को उसकी विद्युत अपघटनी चालकता कहा जाता है|

(1) ओम का नियम(Ohm's law )-
ओम के नियम के अनुसार, एक चालक पर स्थित विभवांतर उससे प्रवाहित होने  वाली विद्युत धारा के समानुपाती होती है| 
यदि किसी चालक पर स्थित विभवांतर (वोल्ट में) V हो तथा विद्युत धारा की शक्ति (एंपियर में) I हो तो ओम के नियम के अनुसार,
              V   {    I
या,  V  = R.I 
जहां, R  एक समानुपाती स्थिरांक है इसे चालक का प्रतिरोध कहा जाता है| इसका मात्रक ओम है|
(2) विशिष्ट प्रतिरोध(Specific resistance )-
किसी चालक का प्रतिरोध R चालक की लम्बाई l के समानुपाती होती है|
      R     {         l 
तथा किसी चालक का प्रतिरोध R चालक के अनुप्रस्थ काट के क्षेत्रफल A के व्युत्क्रमानुपाती होता है|
      R       {     1/A  
अतः, 
      R       {     l/A 
या,  R  = p l/A
जहाँ p(रो) एक नियतांक है| जिसे चालक का विशिष्ट प्रतिरोध कहा जाता है|
यदि l = 1m, तथा A= 1m2,  हो तो 
      R= p 
अतः किसी चालक का विशिष्ट प्रतिरोध उस चालक का वह प्रतिरोध होता है जब उस चालक की लम्बाई 1m तथा उसका अनुप्रस्थ काट का क्षेत्रफल 1m2 हो|
 इसका मात्रक ओम मीटर है|

(3) विद्युत चालकता(Electrical conductance ) -
किसी चालक से विद्युत प्रवाहित करने की सहजता को उस चालक की विद्युत चालकता कहा जाता है| इसे चालक के प्रतिरोध के व्युत्क्रम के बराबर माना जाता है तथा C से निरूपित किया जाता है| इस प्रकार,
          C = 1/R 
 जहां R चालक का प्रतिरोध है|
विद्युत चालकता का मात्रक ohm-1 है, जिसे mho  के रूप में भी व्यक्त किया जाता है| इसे साइमंस(S) इकाई में भी व्यक्त किया जाता है|
1S = 1ohm-1 = 1 mho 

(4) विशिष्ट चालकता या चालकता(Specific conductivity or conductivity)-
किसी चालक के विशिष्ट प्रतिरोध के व्युत्क्रम को उस चालक की विशिष्ट चालकता या केवल चालकता कहा जाता है| इसे ग्रीक अक्षर k(कप्पा) से निरूपित किया जाता है| इस प्रकार,
          k = 1/p 
   जहाँ k=कप्पा तथा p= रो है |
 विशिष्ट चालकता की एक अन्य परिभाषा को निम्न प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है-
      k = 1/p × l/A 
  या, k = C × l/A 
यदि l=1cm तथा A= 1cm2 हो तो, 
        k = C 
 अतः यदि किसी चालक की लंबाई 1cm तथा अनुप्रस्थ काट क्षेत्रफल 1cm2 है तो उसकी विद्युत चालकता को विशिष्ट चालकता कहा जाता है|
विशिष्ट चालकता का मात्रक ohm-1cm-1  या S cm-1 है |

(5) मोलर चालकता( Molar conductivity )- (^m)
किसी विलयन के एक निश्चित आयतन में उपस्थित एक विद्युत अपघट्य पदार्थ के  एक मोल द्वारा उपलब्ध कराए गए आयनों की चालकता शक्ति को मोलर चालकता कहा जाता है| इसे ^m से प्रदर्शित करते हैं|
 मोलर चालकता तथा विशिष्ट चालकता में संबंध-
 मोलर चालकता(^m) तथा विशिष्ट चालकता(k) में संबंध निम्न है-
           ^m = k/Cm 
 जहां, Cm  मोल प्रति इकाई आयतन में विलयन का सांद्रण है|
 यदि विलयन के Vm cm3 में विद्युत अपघट्य पदार्थ का एक मोल घुलित हो तो
      Cm = 1/Vm  mol cm-3
अतः,   ^m = k × Vm 

या, 
  ^m = k ×1000/विलयन की मोलरता 

^m का  मात्रक ohm-1 cm2 mol-1है|

ऑक्सीकरण अपचयन अभिक्रियाएं या रेडॉक्स अभिक्रियाएं (Oxidation-Reduction reaction or Redox reaction)

ऑक्सीकरण अपचयन अभिक्रियाएं या रेडॉक्स अभिक्रियाएं (Oxidation-Reduction reaction or Redox reaction)
जिन अभिक्रियाओं में ऑक्सीकरण तथा अपचयन एक साथ संपन्न होते हैं उन अभिक्रियाओं को रेडॉक्स अभिक्रियाये या ऑक्सीकरण-अपचयन अभिक्रियाए कहा जाता है|
 जैसे-
2HgCl2 + SnCl2 ----> Hg2Cl2 + SnCl4
इस अभिक्रिया में HgCl2 का अपचयन हो रहा है जबकि SnCl2 ऑक्सीकृत हो रहा है| इस प्रकार यह एक रेडॉक्स अभिक्रिया है|
ऑक्सीकरण तथा अपचयन की इलेक्ट्रॉनिक संकल्पना-

ऑक्सीकरण-
इस संकल्पना के अनुसार ऑक्सीकरण वह प्रक्रम है जिसमें कोई परमाणु अणु या आयन एक या अधिक इलेक्ट्रॉनों का त्याग करता है| इलेक्ट्रॉनों का त्याग करने के बाद प्राप्त स्पीशीज में या तो धन आवेश की वृद्धि होती है या ऋण आवेश में कमी होती है|
 जैसे-
H    ---->  H+    +     e´
Cu   ---->  Cu2+    +   2e´
Fe2+    ---->  Fe3+    +   3e´
Sn2+    ---->  Sn4+    +   2e´
Cl´   ---->  Cl   +     e´

अपचयन -
इस संकल्पना के अनुसार अपचयन वह प्रक्रम है जिसमें कोई परमाणु अणु या आयन एक या अधिक इलेक्ट्रॉनों को ग्रहण करता है| इलेक्ट्रॉनों को ग्रहण  करने के बाद प्राप्त स्पीशीज में या तो धन आवेश की कमी होती है या ऋण आवेश में वृद्धि होती है|
 जैसे-
H+    +     e´ ----->  H 
Cu2+    +   2e´ -----> Cu 
 Fe3+    +   e´ ------> Fe2+
Sn4+    +   2e´ ----> Sn2+
Cl2 + 2e´   ---->  2Cl´


ऑक्सीकरण तथा अपचयन एक साथ संपन्न होते हैं और एक दूसरे के पूरक होते हैं जैसे-
2Mg  +  O2  ----->  2MgO 
इलेक्ट्रॉनिक संकल्पना के अनुसार इस अभिक्रिया में मैग्नीशियम ऑक्सीजन को इलेक्ट्रॉन दे रहा है, जबकि ऑक्सीजन मैग्नीशियम से इलेक्ट्रॉन ग्रहण कर रहा है| अतः मैग्नीशियम का ऑक्सीकरण हो रहा है, जबकि ऑक्सीजन का अपचयन हो रहा है|
Mg  ---->  Mg2+    +   2e´      
2Mg  ---->  2Mg2+    +   4e´

O  + 2e´  -----> O´´
O2  + 4e´  -----> 2O´´
एक रेडॉक्स अभिक्रिया को निम्न प्रकार भी परिभाषित किया जा सकता है-
         वह अभिक्रिया जिसमे एक अभिकारक से किसी दूसरे अभिकारक को इलेक्ट्रॉनों का स्थानांतरण किया जाता है ऑक्सीकरण - अपचयन अभिक्रिया या रेडॉक्स अभिक्रिया कहलाती है| 
       जो पदार्थ ऑक्सीकृत होता है वह किसी अन्य पदार्थ को इलेक्ट्रॉन देकर उसे अपचयित होने के लिए बाध्य करता है| अतः स्वयं ऑक्सीकृत होने वाला कोई पदार्थ एक अपचायक की भांति कार्य करता है| इसी प्रकार जो पदार्थ अपचयित होता है वह किसी अन्य पदार्थ से इलेक्ट्रॉन ग्रहण कर उसे ऑक्सीकृत होने के लिए बाध्य करता है इस प्रकार अपचयित होने वाला पदार्थ एक ऑक्सीकारक की भांति कार्य करता है| दूसरे शब्दों में ऑक्सीकारक वह पदार्थ है जो इलेक्ट्रॉनों को ग्रहण करता है, एवं अपचायक वह पदार्थ है जो इलेक्ट्रॉनों को त्यागता है|

ऑक्सीकरण तथा अपचयन अर्द्धअभिक्रियाएं-
एक रेडॉक्स अभिक्रिया में ऑक्सीकरण तथा अपचयन प्रक्रम एक साथ संपन्न होते हैं| अतः रेडॉक्स अभिक्रिया को व्यक्त करने वाली रासायनिक समीकरण को दो अर्द्धसमीकरणों में विभाजित किया जा सकता है| एक अर्द्धसमीकरण ऑक्सीकरण प्रक्रम को तथा दूसरी अर्द्धसमीकरण अपचयन प्रक्रम को निरूपित करती है| इस प्रकार प्रत्येक समीकरण एक अर्द्धअभिक्रिया को निरूपित करती है|
जैसे -
एक रेडॉक्स अभिक्रिया, 
Zn(s) + Cu2+(aq) -----> Zn2+(aq) + Cu को निम्न प्रकार से दो अर्द्धसमीकरणों में विभाजित किया जा सकता है-
Zn(s) -----> Zn2+(aq) + 2e´ (ऑक्सीकरण अर्द्धअभिक्रिया)

Cu2+(aq) + 2e´ -----> Cu ( अपचयन अर्द्धअभिक्रिया)



Tuesday, December 15, 2020

वैद्युत रसायन तथा विद्युत रासायनिक सेल (Electrochemistry and electrochemical cell)

वैद्युत रसायन तथा विद्युत रासायनिक सेल (Electrochemistry and electrochemical cell)

वैद्युत रसायन (Electrochemistry)-
रसायन विज्ञान की वह शाखा जिसमें रासायनिक ऊर्जा तथा विद्युत ऊर्जा के परस्पर रूपांतरण तथा उनके मध्य संबंध का अध्ययन किया जाता है विद्युत रसायन कहलाती है|
विद्युत रासायनिक सेल -(Electrochemical cell)-
जब समान या विभिन्न प्रकार के विद्युत अपघट्यों के विलयनों में डूबे दो इलेक्ट्रोड रासायनिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में या विद्युत ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करने में सक्षम होते हैं तो तंत्र को एक विद्युत रासायनिक सेल कहा जाता है|
 विद्युत रासायनिक सेल निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं-
(1) विद्युत अपघटनी सेल(Electrolytic cell) -
जो सेल विद्युत ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं, उन्हें विद्युत अपघटनी सेल कहा जाता है| 
        इस प्रकार के सेलों में एक बाह्य स्रोत से एक विद्युत अपघट्य विलयन में विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है, जो एक रासायनिक अभिक्रिया को जन्म देती है|
            विद्युत लेपन, धातुओं के विद्युत शुद्धीकरण आदि में प्रयुक्त सेल इस प्रकार के सेल हैं|


(2) गैल्वेनिक सेल(Galvanic cell)-
जो सेल रासायनिक ऊर्जा को विद्युत् ऊर्जा में बदलते हैं,  उन्हें गैल्वेनिक सेल कहा जाता है|
     इस प्रकार के सेलों में एक रासायनिक अभिक्रिया के फलस्वरूप विद्युत् ऊर्जा की उत्पत्ति होती है |
       शुष्क सेल, डेनियल सेल, लेक्लांशे सेल आदि इस प्रकार के सेल हैं|

Monday, December 14, 2020

क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत (Crystal field theory, CFT )

क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत (Crystal field theory, CFT )
क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत का प्रतिपादन बैदे ने 1929 में आयनिक क्रिस्टलों की बंध प्रकृति की व्याख्या हेतु किया था|
        क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत के अनुसार धातु आयन तथा लिगेंड के मध्य पारस्परिक क्रिया पूर्ण रूप से वैद्युतस्थैतिक (आयनिक) होती है| जब लीगैंड केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के संपर्क में आता है तो केंद्रीय धातु परमाणु के पांच अपभ्रस्ट(degenerate) d-ऑर्बिटल (समान ऊर्जा वाले d-ऑर्बिटल) विपाटित(splitted) हो जाते हैं, अर्थात ये लिगेंड के वैद्युत स्थैतिक क्षेत्र के प्रभाव के कारण विभिन्न ऊर्जा स्तरों में बँट जाते हैं|  इस प्रकार d-ऑर्बिटलों की अपभ्रस्टता  खत्म हो जाती है तथा वे दो समूहों में, जिन्हें t2g (dxy, dyz, dzx ) तथा eg ( dx2-y2, dz2 ) समूह कहते हैं, पृथक हो जाते हैं|  यह विपाटन संकर की ज्यामिति पर निर्भर करता है| विपाटित d-ऑर्बिटल के इन दो समूहों के बीच ऊर्जा अंतराल को प्रायः 10 Dq या ∆  से प्रदर्शित करते हैं|  लिगेंड के प्रतिकर्षण के कारण धातु आयन के इलेक्ट्रॉन उन d- ऑर्बिटलों में प्रवेश करते हैं जिनकी पाली लीगैंड की दिशा से अधिकतम दूरी पर स्थित होती हैं| d- ऑर्बिटलों में इलेक्ट्रानों का प्रवेश हुण्ड के नियम से होता है |

अष्टफलकीय संकर यौगिक -

चतुष्फलकीय संकर यौगिक -


Sunday, December 13, 2020

उप-सहसंयोजन यौगिकों में आबंधन (Bonding in Co-ordination compounds)

उप-सहसंयोजन यौगिकों में आबंधन
(Bonding in Co-ordination compounds)

(A) संयोजकता आबंध सिद्धांत -(Valence bond theory, VBT)-
इस सिद्धांत का प्रतिपादन लाइनस पॉलिंग ने किया था| अतः इसे पॉलिंग का सिद्धांत भी कहते हैं| इस सिद्धांत की मुख्य अवधारणाएं निम्न है-
(1) केंद्रीय धातु परमाणु या आयन में कई रिक्त ऑर्बिटल उपस्थित होते हैं जिनमें लिगेंड द्वारा दिए गए इलेक्ट्रॉन समावेशित होते हैं| प्रत्येक मोनोडेंटेड लीगैंड केंद्रीय धातु परमाणु या आयन को इलेक्ट्रॉनों का एक युग्म दान करता है|
(2) केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के रिक्त परमाण्विक ऑर्बिटल आवश्यकतानुसार संकरण में भाग लेते हैं|
(3) जब लिगेंड केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के संपर्क में आता है तो केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के रिक्त संकरित ऑर्बिटल लीगेंड के इलेक्ट्रॉनों के एकाकी युग्म युक्त ऑर्बिटलों के साथ अतिव्यापन करते हैं तथा प्रबल लिगेंड धातु उप-सहसंयोजक बंधों का निर्माण करते हैं|
(4) संकर निर्माण प्रक्रिया में हुंड के अधिकतम बहुलता के नियम का पालन किया जाता है| परंतु प्रबल लिगेंड के प्रभाव के कारण इलेक्ट्रॉन हुंड के नियम के विरुद्ध युग्मित हो सकते हैं|
(5)  केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के अनाबंधी इलेक्ट्रॉन अप्रभावित रहते हैं तथा रासायनिक बंध निर्माण में भाग नहीं लेते हैं|
(6) यदि किसी संकर में एक या अधिक अयुग्मित इलेक्ट्रॉन उपस्थित हो तो वह संकर अनुचुंबकीय प्रकृति का होता है| यदि संकर में उपस्थित सभी इलेक्ट्रॉन युग्मित हैं तो संकर की प्रकृति प्रतिचुंबकीय होती है|

संयोजकता आबंध सिद्धांत के आधार पर कुछ उप-सहसंयोजन यौगिकों की संरचना तथा आकृति-

(1) अष्टफलकीय संकर-
अष्टफलकीय संकरों का निर्माण d2sp3 या sp3d2 संकरण द्वारा होता है|
जैसे- 
हैक्सासायनोफेरेट(||) आयन, [Fe(CN)6]4-
इस संकर में आयरन की ऑक्सीकरण अवस्था +2 है| अतः इस अवस्था में Fe2+ के सभी 3d ऑर्बिटल भरे हुए हैं| CN´ आयन प्रबल लीगेंड है| जब 6 CN´ लीगेंड Fe2+ के निकट आते हैं तो 3d  इलेक्ट्रॉन हुंड के अधिकतम बहुलता सिद्धांत के विरुद्ध युग्मित होने लगते हैं| अतः दो 3d  ऑर्बिटल रिक्त हो जाते हैं| 6 CN´ लिगेंड प्रदान किए गए 12 इलेक्ट्रॉनों को समावेशित करने के लिए केंद्रीय Fe2+ आयन के पास 6 रिक्त परमाण्विक ऑर्बिटलों  की आवश्यकता होती है| अतः Fe2+ के दो 3d, एक 4s तथा तीन 4p  ऑर्बिटल मिलकर d2sp3 संकरण करते हैं और CN- द्वारा दिए गए 12 इलेक्ट्रॉनों को समावेशित कर लेते हैं|
(2) चतुष्फलकीय संकर-
ये संकर sp3 संकरण द्वारा बनते हैं|
जैसे -
निकिल कार्बोनिल, [Ni(CO)4]
इस संकर में निकिल की ऑक्सीकरण अवस्था 0 है| प्रबल CO लीगैंडो की उपस्थिति में इलेक्ट्रॉन 4s इलेक्ट्रान 3d ऑर्बिटल में प्रवेश करने के लिए बाध्य हो जाते हैं| जिसके कारण sp3 संकरण हो पाता है|
(3) वर्गसमतलीय संकर-
वर्गसमतलीय संकर dsp2 संकरण द्वारा निर्मित होते हैं|
जैसे - टेट्रासायनाइडोनिकिलेट(||) आयन, [Ni(CN)4]2-



Wednesday, December 9, 2020

उपसहसंयोजन यौगिकों का नामकरण(Nomenclature of Co-ordination compounds)

उपसहसंयोजन यौगिकों का नामकरण(Nomenclature of Co-ordination compounds)
उपसहसंयोजन यौगिकों का नामकरण 1957 में प्रतिपादित तथा 1959 में संशोधित I.U.P.A.C. नामांकन पद्धति द्वारा किया जाता है| उपसहसंयोजन यौगिकों की I.U.P.A.C. नामांकन पद्धति निम्न प्रकार है-
 उपसहसंयोजक यौगिकों के नामकरण के नियम- 
आधुनिक I.U.P.A.C.पद्धति के अनुसार किसी उपसहसंयोजन यौगिकों के नामांकन में निम्न नियम हैं- 
(1) आयनों का नामकरण क्रम-
आयनिक संकरो में धनात्मक आयन को सबसे पहले लिखा जाता है और ऋणात्मक आयन को उसके बाद लिखते हैं| नाम का आरंभ छोटे अक्षर से होता है तथा संकर भाग को एक शब्द के रूप में लिखा जाता है| आयनिक संकरों के नाम एक शब्द के रूप में लिखे जाते हैं|
(2) लीगैंडों का नामकरण-
विभिन्न प्रकार के लीगैंडों का नामकरण निम्न है-
(a) उदासीन लीगैंड का नाम और उनकी बातें लिखते हैं| जैसे- 
CO  कार्बोनिल 
CS   थायोकार्बोनिल
NO नाइट्रोसिल 
NH2CONH2 ऐथिलिन डाई ऐमीन(en)
C5H5N पायरिडीन 
H2O एक्वा 
NH3 एमाइन 
(b) ऋणायनिक लीगैंड के नाम लिखते समय समूह के संगत नाम के साथ पश्चलग्न के रूप में -आइडो(-ido) या      -ओ(-o) लगाते हैं| जैसे-
Cl´  क्लोराइडो 
Br´  ब्रोमाइडो 
I´  आयोडाइडो 
F´  फ्लोराइडो
CN´  सायोनाइडो 
SO4´´ सल्फेटो 
CH3COO´ ऐसिटेटो 
S´´  सल्फाइडो 
CO3´´ कार्बोनेटो 
S2O3´´ थायोसल्फेटो
OH´  हाइड्रोक्साइडो 
O´´  ऑक्सो 
SCN´ थायोसायनेटो 
C2O4´´  ऑक्जेलेटो 
SO3´´ सल्फाइटो 
NH2´  ऐमीडो 
NO3´  नाइट्रेटो 
NO2´  नाइट्राईटो-N 
ONO´  नाइट्राईटो-O
(c) धनायनिक लीगैंड  संकरों में अधिक नहीं मिलतेे हैं| इनका नामकरण समूह के संगत नाम के साथ -ium पश्चलग्न  लगाकर करतेे हैं| जैसे -
NO+  नाइट्रोसोनियम 
 NO2+  नाइट्रोनियम 
NH2NH3+  हाईड्राजिनियम 

(3) एम्बीडेंट लीगैंड के जुड़ने की विधि-
कुछ मोनोडेंटेट लीगैंड में एक से अधिक दाता परमाणु उपस्थित होते हैं, जो केंद्रीय धातु परमाणु से किसी भी दाता परमाणु द्वारा जुड़ सकते हैं| ऐसे लिगेंड को एम्बीडेंट लिगेंड कहा जाता है| ऐसी स्थिति में लिगेंड का नाम दो प्रकार से लिखा जा सकता है-
(1) एम्बीडेन्ट लीगैंड के नामकरण के लिए उस परमाणु का प्रतीक लिखते हैं जिसके द्वारा लीगैंड केंद्रीय धातु परमाणु से जुड़ सकता है| जैसे-  SCN´ एक एम्बीडेंट लीगैंड है तथा यह S और N दोनों से जुड़ सकता है| अतः इसका नाम इसके जुड़ने के आधार पर थायोसायनेटो-S या थायोसायनेटो-N होगा|
 (2) एम्बीडेंट लीगैंड का विभिन्न प्रकार से जुड़ना उनको विभिन्न नाम देकर भी समझाया जा सकता है| जैसे- लीगैंड NO2´,  N के द्वारा (-NO2´ के रूप में) या O के द्वारा(-ONO´) जुड़ सकता है| क्रमशः N और O  से जुड़ने के अनुसार इसे नाइट्रो तथा नाइट्राइटो नाम भी दिए जा सकते हैं|

(4) लीगैंडों की संख्या-
(a) यदि एक ही संकर में दो या अधिक समान प्रकार की लीगैंड उपस्थित हो तो अनुलग्नों डाई, ट्राई, टेट्रा, पेंटा, हेक्सा आदि का प्रयोग उनकी संख्या बताने के लिए किया जाता है|
(b) जब पॉलिडेंटेट लीगैंड के नाम में डाई, ट्राई आदि (जैसे- एथिलीनडाईएमीन, एथिलीनडाईएमीन टेट्राएसिटेट आदि) आंकिक अनुलग्न निहित होते हैं तो लिगेंड की 2,3,4,5,6 आदि संख्याओं को प्रदर्शित करने के लिए क्रमशः बिस, ट्रिस, टेट्राकिस, पेंटाकिस, हेक्साकिस आदि का प्रयोग करते हैं|

(5) लीगैंडो के नामों का क्रम-
जब एक से अधिक लिगेंड संकर में उपस्थित होते हैं तो उनके नाम उन पर स्थित आवेश के अनुसार न होकर वर्णमाला के अक्षरों के क्रम में लिखे जाते हैं| लिगेंड का नाम एक ही शब्द के रूप में लिखा जाता है|

(6) केंद्रीय धातु आयन का नामकरण-

(a) धनायनिक तथा उदासीन संकर-
जब संकर धनायनिक या उदासीन होते हैं तो केंद्रीय धातु परमाणु या आयन को अन्य दूसरे यौगिकों में प्रयुक्त उसके साधारण नाम द्वारा ही वर्णित किया जाता है| केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के नाम के साथ उसकी ऑक्सीकरण संख्या लिखी जाती है| ऑक्सीकरण संख्या को रोमन संख्या में एक कोष्ठक के भीतर लिखते हैं|
(b) ऋणायनिक संकर-
जब संकर ऋणायनिक होता है तो केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के नाम के अंत में ऐट(-ate) पश्चलग्न का प्रयोग करते हैं तथा इसके साथ कोष्ठक में इसकी ऑक्सीकरण संख्या रोमन संख्या में लिखते हैं|
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EXAMPLE -



Sunday, December 6, 2020

उपसहसंयोजन यौगिकों का वर्नर सिद्धांत (Werner's theory of Co-ordination compounds )

उपसहसंयोजन यौगिकों का वर्नर सिद्धांत (Werner's theory of Co-ordination compounds )
एल्फ्रेड वर्नर (1892) ने संकर यौगिकों के गुणों का विस्तृत अध्ययन किया| इन यौगिकों के गुणों की व्याख्या करने के लिए वर्नर ने एक सिद्धांत दिया जिसे उप-सहसंयोजन यौगिकों का वर्नर सिद्धांत कहते हैं| इस सिद्धांत का संक्षिप्त विवरण निम्न है-
 वर्नर सिद्धांत की अवधारणाएँ-
(1) संकर में उपस्थित केंद्रीय धातु परमाणु या आयन दो प्रकार की संयोजकताओं का प्रदर्शन करता है- प्राथमिक संयोजकता तथा द्वितीयक संयोजकता|
(a) प्राथमिक संयोजकता-
 यह संयोजकता आयनन योग्य होती है तथा यह केंद्रीय धातु आयन की ऑक्सीकरण अवस्था के संगत होती है इसमें हमेशा एक ऋणात्मक आयन ही जुड़ता है| प्राथमिक संयोजकताओं को डॉट युक्त रेखाओं(----)  द्वारा प्रदर्शित किया जाता है| केंद्रीय धातु आयन से प्राथमिक संयोजकताओं द्वारा जुड़े आयन विलयन में आयनित होते हैं|
(b) द्वितीयक संयोजकता-
 इस प्रकार की संयोजकता आयनन योग्य नहीं होती है तथा केंद्रीय धातु परमाणु या आयन की उपसहसंयोजक संख्या के अनुरूप होती है| प्रत्येक केंद्रीय धातु परमाणु या आयन की द्वितीयक संयोजकताओं की संख्या निश्चित होती है| (वास्तव में यह संख्या केंद्रीय धातु आयन की उपसहसंयोजक संख्या के बराबर होती है)| द्वितीयक संयोजकताएँ ऋणात्मक या उदासीन अणुओ द्वारा संतुष्ट होती है| इन्हें सतत रेखाओं(-) द्वारा प्रदर्शित करते हैं| केंद्रीय धातु आयन से द्वितीयक संयोजकताओं द्वारा जुड़े समूह विलयन में आयनित नहीं होते हैं|
(2) केंद्रीय धातु परमाणु या आयन में सभी प्राथमिक तथा द्वितीयक संयोजकताओं को संतुष्ट करने की प्रवृत्ति होती है|
(3) द्वितीयक संयोजकताएँ दैशिक होती हैं जबकि प्राथमिक संयोजकता अदैशिक  होती है|

लीगैंडों का वर्गीकरण(Classification of ligands)

लीगैंडों का वर्गीकरण (Classification of ligands)
लीगैंड का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया जाता है-
(A) आवेश पर आधारित वर्गीकरण-
लीगैंड पर उपस्थित आवेश के आधार पर लीगैंड को निम्न प्रकार वर्गीकृत कर सकते हैं-
(1) उदासीन लीगैंड-
 ऐसे लीगैंड पर कोई आवेश नहीं होता है और यह प्रायः आणविक स्पीशीज होती हैं, जिनमें एक या एक से अधिक इलेक्ट्रॉनों की एकल युग्म उपस्थित रहते हैं|
 जैसे- H2O(एक्वा), NH3(एमाइन), CO(कार्बोनिल), C2H5N(पिरिडिन, py)

 (2) ऋणात्मक लीगैंड-
 ऐसे लीगैंड पर ऋण आवेश होता है और यह ऋणात्मक स्पीशीज होती हैं जिनमें एक या अधिक इलेक्ट्रॉनों के एकल युग्म  पाए जाते हैं|
 जैसे- F´ (फ़्लोराइडो),  Cl´(क्लोराइडो) Br´ (ब्रोमाइडो), I´(आयोडाइडो),  CN´ (सायनाइडो), OH´(हाइड्राक्साइडो) आदि 
 (3) धनात्मक लीगैंड-
धन आवेश वाले लिगेंड धनात्मक लिगेंड कहलाते हैं| यह संकर में बहुत कम पाए जाते हैं|
 जैसे- NO+ (नाइट्रोसायलियम),  NH2NH3+(हाइड्राजीनियम) आदि 

(B) दंतता के आधार पर वर्गीकरण (दाता परमाणुओं की संख्या पर आधारित वर्गीकरण)-
लीगैंड में उपस्थित दाता परमाणुओं की संख्या को लिगेंड की दंतता कहा जाता है| दंतता के आधार पर लीगैंडो को निम्न प्रकार बांटा जा सकता है-
(1) मोनोडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास केवल एक दाता परमाणु होता है और जो धातु परमाणु या आयन से केवल एक उप-सहसंयोजक बंध बनाता है उसे मोनोडेंटेट लीगैंड कहते हैं| ऐसे लीगैंड केवल एक बिंदु द्वारा ही केंद्रीय परमाणु से जुड़े होते हैं| यह उदासीन तथा ऋणात्मक दोनों हो सकते हैं|

(2) डाईडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास दो दाता परमाणु होता है और जो धातु परमाणु या आयन से दो उप-सहसंयोजक बंध बनाता है उसे डाईडेंटेट लीगैंड कहते हैं| ऐसे लीगैंड दो  बिंदु द्वारा केंद्रीय परमाणु से जुड़े होते हैं| 

(3) ट्राईडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास 3 दाता परमाणु होता है और जो धातु परमाणु या आयन से 3 उप-सहसंयोजक बंध बनाता है उसे ट्राईडेंटेट लीगैंड कहते हैं| ऐसे लीगैंड 3 बिंदु द्वारा केंद्रीय परमाणु से जुड़े होते हैं| 

(4) टेट्राडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास 4 दाता परमाणु होता है, उसे टेट्राडेंटेट लीगैंड कहते हैं| 

(5) पेंटाडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास 5 दाता परमाणु होता है, उसे पेंटाडेंटेट लीगैंड कहते हैं| 

(6) हेक्साडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास 6 दाता परमाणु होता है, उसे हेक्साडेंटेट लीगैंड कहते हैं| 

(7) सेतु लीगैंड-
वे मोनोडेंटेट लीगैंड जो एक साथ एक से अधिक धातु परमाणु या आयन से  जुड़ते हैं सेतु लिगेंड कहलाते हैं|
 जैसे-
(8)  एम्बीडेंटेट लीगैंड-
वे लीगैंड जो दो विभिन्न परमाणुओं के द्वारा उप-सहसंयोजक बंध बना सकते हैं एम्बीडेंटेट लिगेंड कहलाते हैं|
जैसे-NO2´ स्वयं को केंद्रीय धातु या आयन से N या O  दोनों के माध्यम से जोड़ सकता है |
(9) कीलेटिंग लीगैंड तथा कीलेट्स-
जब एक पॉलिडेंटेट लिगेंड दो या अधिक दाता परमाणुओं द्वारा धातु आयन से इस प्रकार जुड़ता है कि वह धातु आयन के साथ पांच या छह सदस्यीय रिंग का निर्माण करता है तो उसे कीलेट लीगैंड तथा निर्मित रिंग को कीलेट कहते हैं|
 जैसे- एेथिलिन डाईएमीन(en), डाई एथिलिन ट्राईएमीन(dien), EDTA, आदि

Monday, November 30, 2020

उप-सहसंयोजन रसायन में प्रयुक्त प्रमुख शब्दावली

उप-सहसंयोजन रसायन में प्रयुक्त प्रमुख शब्दावली

(1) केंद्रीय धातु परमाणु या आयन-
उप-सहसंयोजन यौगिक में कुछ निश्चित परमाणु या परमाणु का समूह (लीगैंड) एक धातु परमाणु या आयन से स्थाई रूप से जुड़ा रहता है| इस धातु परमाणु या आयन को केंद्रीय धातु परमाणु या आयन कहते हैं|
 जैसे- K[Ag(CN)2] में Ag+ केंद्रीय धातु आयन है|

(2) लीगैंड-
 वह आणविक या आयनिक स्पीशीज, जो संकर यौगिक में केंद्रीय धातु परमाणु या आयन से स्थाई रूप से जुड़ी होती हैं, लीगैंड कहलाती है|
 जैसे-
K[Ag(CN)2] में CN´ आयन लीगैंड है|

लीगैंड केंद्रीय धातु से उप-सहसंयोजक बंध द्वारा जुड़े होते हैं|

(3) संकर या जटिल आयन-
वैद्युत रुप से आवेशित वह स्पीशीज, जो केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के एक या अधिक  लीगैंड के साथ संयोग करने से निर्मित होती है संकर आयन कहलाती है| जैसे- [Fe(CN)6]4- एक संकर आयन है|
एक संकर आयन ऋण आवेशित या धन आवेशित दोनों प्रकार का हो सकता है| धन आवेशित संकर आयन को धनायनिक संकर आयन तथा ऋण आवेश वाले संकर आयन को ऋण आयनिक संकर आयन कहा जाता है|
 जैसे-
 धनायनिक संकर आयन -
[Ag(NH3)2]+ 
[Cu(NH3)4]++ 
[Co(NH3)6]+++  
ऋणायनिक संकर आयन -
[Fe(CN)6]4-
[Ag(CN)2]-
[Cu(Cl)4]--

(4) उप-सहसंयोजन तथा आयनिक मंडल-
केंद्रीय धातु परमाणु तथा उससे जुड़े लीगैंड को संकर यौगिक का उप-सहसंयोजन मंडल कहा जाता है| जो भाग जल में आयनित हो जाता है (बड़े कोष्टक के बाहर लिखी स्पीशीज) उसे संकर यौगिक का आयनिक मंडल कहा जाता है| जैसे- [Cu(NH3)4]SO4 विलयन निम्न प्रकार अायनित होता है-
 [Cu(NH3)4]SO4 <===>  [Cu(NH3)4]2+   +    SO4´´
इसमें  [Cu(NH3)4]2+ उप-सहसंयोजक मंडल तथा SO4´´ आयनिक मंडल है|
(5) उप-सहसंयोजन बहुभुज-
केंद्रीय धातु परमाणु या आयन से सीधे जुड़े लीगैंडो की त्रिविमीय व्यवस्था केंद्रीय परमाणु के चारों ओर बहुभुज बना देती है जिसे उपसहसंयोजन बहुभुज कहते हैं| उपसहसंयोजन बहुभुज चतुष्कफलकीय, वर्गाकार, तलीय, षटकोणीय, त्रिकोणीय, आदि आकृति के होते हैं|
(6) धनायनिक,ऋणायनिक तथा उदासीन संकर यौगिक-
(A) धनायनिक संकर-
वे यौगिक जिनमें कुल उपस्थित आवेश धनात्मक होता है, उन्हें धनायनिक संकर यौगिक कहते हैं| 
जैसे- [Co(NH3)6]Cl3
[Fe(H2O)6]Cl3
(B) ऋणायनिक संकर-
वे यौगिक जिनमें संकर आयन का आवेश ऋणात्मक होता है, उन्हें ऋणायनिक संकर यौगिक कहते हैं| 
जैसे- K[Ag(CN)2]
K4[Fe(CN)6]
(C) उदासीन संकर-
वे संकर यौगिक जिन पर कोई आवेश नहीं होता है, उन्हें उदासीन संकर यौगिक कहते हैं| 
जैसे- [Pt(NH3)2Cl2]
[Ni(CO)4]

(7) उपसहसंयोजन संख्या या समन्वय संख्या-
लीगैंड की वह अधिकतम संख्या जो कि किसी केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के साथ संयोग करती है, उसे उस केंद्रीय धातु परमाणु या आयन की उपसहसंयोजन संख्या कहा जाता है|
 जैसे-  K4[Fe(CN)6] में केंद्रीय Fe++  आयन से 6CN- लिगेंड जुड़े हैं अतः इसकी उपसहसंयोजक संख्या 6 है|
(8) केंद्रीय धातु परमाणु की ऑक्सीकरण संख्या-
केंद्रीय धातु परमाणु के अन्य परमाणु या परमाणु समूहों (लिगेंड) से संयोग के पश्चात उस पर उपस्थित शुद्ध वैद्युत आवेश की संख्या को केंद्रीय धातु परमाणु या आयन की ऑक्सीकरण संख्या कहा जाता है|
 जैसे- K4[Fe(CN)6] में आयरन की ऑक्सीकरण संख्या +2 है|
(9) होमोलेप्टिक एवं हेट्रोलेप्टिक संकर यौगिक-
वह संकर यौगिक जिसमें केंद्रीय धातु परमाणु या आयन केवल एक प्रकार के दाता समूह (लिगेंड) से जुड़ा होता है वह होमोलेप्टिक संकर यौगिक कहलाता है|
 जैसे- [Fe(CN)6]4- , 
[Co(NH3)6]3+
 जिन संकर यौगिकों में केंद्रीय धातु एक साथ एक से अधिक प्रकार के दाता समूहों से जुड़ा होता है वह हेट्रोलेप्टिक संकर यौगिक कहलाते हैं 
जैसे- [Cu(NH3)4Cl2]+,
[Co(NH3)5SO4]+

Wednesday, November 25, 2020

उप-सहसंयोजन यौगिक (संकर या जटिल यौगिक) (Co-ordination Compounds)

उप-सहसंयोजन यौगिक (संकर या जटिल यौगिक) (Co-ordination Compounds)
 
उप-सहसंयोजन रसायन-
रसायन विज्ञान की वह शाखा जिसमें उपसहसंयोजन यौगिकों या संकर यौगिकों का अध्ययन किया जाता है, उपसहसंयोजन रसायन कहलाती है|

द्विक-लवण तथा उप-सहसंयोजन यौगिक में अंतर-
(1) द्विक लवण(Double salt )-
ये वे आणविक या योगात्मक यौगिक हैं जो कि ठोस अवस्था में रहते हैं परंतु जल में घोलने पर यह अपने घटक आयनों में वियोजित हो जाते हैं| इस प्रकार घटक विलयन में अपनी पहचान खो देते हैं| यह लवण सामान्यतः दो लवणों को आपस में मिलाकर बनाए जाते हैं|
जैसे -
(a) पोटाश एलम,K2SO4.Al2(SO4)3.24H2O

K2SO4 + Al2(SO4)3 + 24H2O -->
K2SO4.Al2(SO4)3.24H2O
जब पोटाश एलम को जल में घोला जाता है तो यह अपनी पहचान खोकर अपने आयनों में टूट जाता है|
K2SO4.Al2(SO4)3.24H2O ----> 2K+  +  2Al3+  +  4SO42-  +  24H2O 

(b) मोहर लवण, FeSO4.(NH4)2SO4.6H2O

FeSO4 + (NH4)2SO4 + 6H2O -->
FeSO4.(NH4)2SO4.6H2O
जब मोहर लवण को जल में घोला जाता है तो यह अपनी पहचान खोकर अपने आयनों में टूट जाता है|
FeSO4.(NH4)2SO4.6H2O ----> Fe2+  +  2NH4+  +  2SO42-  +  6H2O 
(2) उप-सहसंयोजन यौगिक-
उप-सहसंयोजन यौगिक या उप-सहसंयोजक यौगिक वे आणविक या योगात्मक यौगिक होते हैं जिनमें केंद्रीय धातु परमाणु या आयन स्थाई रूप से कुछ निश्चित परमाणु या परमाणु के समूहों से जुड़ा रहता है, जिन्हें लीगैंड कहते हैं| लिगैंड कम से कम एक इलेक्ट्रॉन युग्म को केंद्रीय धातु या आयन को प्रदान करके उससे एक उप-सहसंयोजक बंध द्वारा जुड़ने की प्रवृति रखते हैं|
जैसे -K4[Fe(CN)6
यह विलयन में निम्न प्रकार वियोजित होता है-
K4[Fe(CN)6  <===> 4K+  +  [Fe(CN)6]





Sunday, November 22, 2020

लैंथेनॉयडस के सामान्य गुण

लैंथेनॉयडस के सामान्य गुण
(1) प्राप्ति-
यद्यपि इनको दुर्लभ मृदा तत्व समझा जाता है परंतु यह इतनी दुर्लभ नहीं है| यह प्रकृति में सूक्ष्म मात्रा में परंतु बहुतायत में वितरित रहते हैं|
(2) इलेक्ट्रॉनिक विन्यास-
इन तत्वों का सैद्धांतिक इलेक्ट्रॉनिक विन्यास [Xe]4fn5d16s2  प्रकार का होता है| चूँकि 4f उपकोश की उर्जा 5d  उपकोश की ऊर्जा के काफी निकट है अतः यह विभेद करना कठिन हो जाता है कि इलेक्ट्रॉन 4f उपकोश में प्रवेश कर रहा है या 5d  उपकोश में| यही कारण है कि इनके अनुमानित अभिविन्यास इनके अवलोकित अभिविन्यास से भिन्न होते हैं|अवलोकित अभिविन्यास मुख्यतः [Xe]4fn+16s2 प्रकार के होते हैं|

(3) ऑक्सीकरण अवस्थाएं-
लैंथेनॉयड्स की प्रमुख ऑक्सीकरण अवस्था +3 है इसके अतिरिक्त यह +2 तथा +4 अवस्था भी दर्शाते हैं| जलीय विलयन में +2 एवं +4 की अपेक्षा +3 अवस्था अधिक स्थाई होती है|
(4) चुंबकीय गुण-
इन तत्वों की अधिकांश आयन +3 अवस्था में अनुचुंबकीय प्रकृति के होते हैं तथा एक निश्चित चुंबकीय आघूर्ण प्रदर्शित करते हैं| La3+ तथा Lu3+ में शून्य चुंबकीय गुण पाया जाता है तथा यह अनु चुंबकीय व्यवहार प्रदर्शित नहीं करते हैं| 
          सामान्यतः अनुचुंबकीय व्यवहार एक या एक से अधिक अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की उपस्थिति के कारण होता है वह परमाणु या आयन जिसमें अयुग्मित इलेक्ट्रॉन अनुपस्थित होता है प्रतिचुंबकीय कहलाते हैं|
(5) आयनों के रंग-
कुछ अपवादों को छोड़कर लैंथेनॉएड्स के त्रिधनात्मक आयन रंगीन होते हैं| यह जलीय तथा ठोस दोनों अवस्थाओं में रंगीन होते हैं क्योंकि इनके f- कक्षकों में अयुग्मित इलेक्ट्रॉन होते हैं|
(6) परमाणु तथा आयनों का आकार (लैंथेनॉयड संकुचन)-
सीरियम से ल्युटीशियम की ओर जाने पर परमाणु तथा आयनों का आकार निरंतर घटता है| यह कमी त्रिधनात्मक आयनों में अधिक नियमित हैं|
    जब हम Ce से Lu की ओर गति करते हैं तो परमाणु क्रमांक बढ़ता है तथा अंतिम इलेक्ट्रॉन भीतरी 4f कक्षक में प्रवेश करता है| नाभिकीय आवेश बढ़ने पर एक 4f इलेक्ट्रॉन का दूसरे 4f इलेक्ट्रॉन द्वारा आवरणी प्रभाव 4f ऑर्बिटल की विशिष्ट आकृतियों के कारण बहुत अधिक प्रभावी नहीं होता है| अतः परमाणु संख्या में वृद्धि होने पर प्रत्येक 4f इलेक्ट्रॉन द्वारा अनुभावित प्रभावी नाभिकीय आवेश बढ़ता है| इसके कारण 4f उपकोश में प्रत्येक इलेक्ट्रॉन के प्रवेश के साथ आकार में थोड़ी सी कमी आ जाती है| इस प्रकार 4f उपकोश में प्रत्येक इलेक्ट्रॉन के बढ़ने पर प्रभावी नाभिकीय आवेश में वृद्धि होती है तथा आकार में संकुचन होता है| यह संकुचन निरंतर होता रहता है तथा इस प्रभाव को लैंथेनाइड संकुचन कहा जाता है|
लैंथेनाइड संकुचन के परिणाम-
(a) परमाण्विक एवं आयनिक त्रिज्या-
सामान्यतः समूह में परमाण्विक एवं आयनिक त्रिज्या परमाणु क्रमांक बढ़ने के साथ बढ़ती हैं| यह तथ्य प्रथम एवं द्वितीय संक्रमण श्रेणियों की तुलना करने पर स्पष्ट होता है|
(b) घनत्व-
लैंथेनाइड संकुचन के कारण परमाणु के आकार में कमी होती है फलस्वरुप लंथनॉएड्स के बाद उपस्थित सभी तत्वों में और सामान्य रूप से उनके घनत्व में वृद्धि पाई जाती है|
(c) आयनन विभव-
लैंथेनाइड संकुचन के कारण टंगस्टन तथा उससे आगे के तृतीय पंक्ति तत्वों की आयनन विभव भी प्रभावित होते हैं| लैंथेनाइड संकुचन की अनुपस्थिति में इनके आयनन विभव बहुत कम होने चाहिए थे तथा समूह में नीचे जाने पर इनमें नियमित कमी होने चाहिए थी|

(7) जटिल यौगिकों का निर्माण-
d-ब्लॉक तत्वों की अपेक्षा लैंथेनाइड कम मात्रा में तथा कठिनता से जटिल यौगिकों का निर्माण करते हैं|
(8) मिश्र धातु निर्माण-
लेंथेनॉइड्स अधिक सघन तथा उच्च गलनांक वाली धातु हैं| यह दूसरे धातुओं के साथ विशेषतः आयरन के साथ मिश्र धातु का निर्माण करते हैं| यह मिश्र धातुएं अत्यंत उपयोगी हैं क्योंकि इनमें उपस्थित दुर्लभ मृदा तत्व इस्पात की कार्य क्षमता को बढ़ा देते हैं|