एल्फ्रेड वर्नर (1892) ने संकर यौगिकों के गुणों का विस्तृत अध्ययन किया| इन यौगिकों के गुणों की व्याख्या करने के लिए वर्नर ने एक सिद्धांत दिया जिसे उप-सहसंयोजन यौगिकों का वर्नर सिद्धांत कहते हैं| इस सिद्धांत का संक्षिप्त विवरण निम्न है-
वर्नर सिद्धांत की अवधारणाएँ-
(1) संकर में उपस्थित केंद्रीय धातु परमाणु या आयन दो प्रकार की संयोजकताओं का प्रदर्शन करता है- प्राथमिक संयोजकता तथा द्वितीयक संयोजकता|
(a) प्राथमिक संयोजकता-
यह संयोजकता आयनन योग्य होती है तथा यह केंद्रीय धातु आयन की ऑक्सीकरण अवस्था के संगत होती है इसमें हमेशा एक ऋणात्मक आयन ही जुड़ता है| प्राथमिक संयोजकताओं को डॉट युक्त रेखाओं(----) द्वारा प्रदर्शित किया जाता है| केंद्रीय धातु आयन से प्राथमिक संयोजकताओं द्वारा जुड़े आयन विलयन में आयनित होते हैं|
(b) द्वितीयक संयोजकता-
इस प्रकार की संयोजकता आयनन योग्य नहीं होती है तथा केंद्रीय धातु परमाणु या आयन की उपसहसंयोजक संख्या के अनुरूप होती है| प्रत्येक केंद्रीय धातु परमाणु या आयन की द्वितीयक संयोजकताओं की संख्या निश्चित होती है| (वास्तव में यह संख्या केंद्रीय धातु आयन की उपसहसंयोजक संख्या के बराबर होती है)| द्वितीयक संयोजकताएँ ऋणात्मक या उदासीन अणुओ द्वारा संतुष्ट होती है| इन्हें सतत रेखाओं(-) द्वारा प्रदर्शित करते हैं| केंद्रीय धातु आयन से द्वितीयक संयोजकताओं द्वारा जुड़े समूह विलयन में आयनित नहीं होते हैं|
(2) केंद्रीय धातु परमाणु या आयन में सभी प्राथमिक तथा द्वितीयक संयोजकताओं को संतुष्ट करने की प्रवृत्ति होती है|
(3) द्वितीयक संयोजकताएँ दैशिक होती हैं जबकि प्राथमिक संयोजकता अदैशिक होती है|
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