क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत का प्रतिपादन बैदे ने 1929 में आयनिक क्रिस्टलों की बंध प्रकृति की व्याख्या हेतु किया था|
क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत के अनुसार धातु आयन तथा लिगेंड के मध्य पारस्परिक क्रिया पूर्ण रूप से वैद्युतस्थैतिक (आयनिक) होती है| जब लीगैंड केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के संपर्क में आता है तो केंद्रीय धातु परमाणु के पांच अपभ्रस्ट(degenerate) d-ऑर्बिटल (समान ऊर्जा वाले d-ऑर्बिटल) विपाटित(splitted) हो जाते हैं, अर्थात ये लिगेंड के वैद्युत स्थैतिक क्षेत्र के प्रभाव के कारण विभिन्न ऊर्जा स्तरों में बँट जाते हैं| इस प्रकार d-ऑर्बिटलों की अपभ्रस्टता खत्म हो जाती है तथा वे दो समूहों में, जिन्हें t2g (dxy, dyz, dzx ) तथा eg ( dx2-y2, dz2 ) समूह कहते हैं, पृथक हो जाते हैं| यह विपाटन संकर की ज्यामिति पर निर्भर करता है| विपाटित d-ऑर्बिटल के इन दो समूहों के बीच ऊर्जा अंतराल को प्रायः 10 Dq या ∆ से प्रदर्शित करते हैं| लिगेंड के प्रतिकर्षण के कारण धातु आयन के इलेक्ट्रॉन उन d- ऑर्बिटलों में प्रवेश करते हैं जिनकी पाली लीगैंड की दिशा से अधिकतम दूरी पर स्थित होती हैं| d- ऑर्बिटलों में इलेक्ट्रानों का प्रवेश हुण्ड के नियम से होता है |
अष्टफलकीय संकर यौगिक -
चतुष्फलकीय संकर यौगिक -
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