Advance Chemistry : November 2020

Monday, November 30, 2020

उप-सहसंयोजन रसायन में प्रयुक्त प्रमुख शब्दावली

उप-सहसंयोजन रसायन में प्रयुक्त प्रमुख शब्दावली

(1) केंद्रीय धातु परमाणु या आयन-
उप-सहसंयोजन यौगिक में कुछ निश्चित परमाणु या परमाणु का समूह (लीगैंड) एक धातु परमाणु या आयन से स्थाई रूप से जुड़ा रहता है| इस धातु परमाणु या आयन को केंद्रीय धातु परमाणु या आयन कहते हैं|
 जैसे- K[Ag(CN)2] में Ag+ केंद्रीय धातु आयन है|

(2) लीगैंड-
 वह आणविक या आयनिक स्पीशीज, जो संकर यौगिक में केंद्रीय धातु परमाणु या आयन से स्थाई रूप से जुड़ी होती हैं, लीगैंड कहलाती है|
 जैसे-
K[Ag(CN)2] में CN´ आयन लीगैंड है|

लीगैंड केंद्रीय धातु से उप-सहसंयोजक बंध द्वारा जुड़े होते हैं|

(3) संकर या जटिल आयन-
वैद्युत रुप से आवेशित वह स्पीशीज, जो केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के एक या अधिक  लीगैंड के साथ संयोग करने से निर्मित होती है संकर आयन कहलाती है| जैसे- [Fe(CN)6]4- एक संकर आयन है|
एक संकर आयन ऋण आवेशित या धन आवेशित दोनों प्रकार का हो सकता है| धन आवेशित संकर आयन को धनायनिक संकर आयन तथा ऋण आवेश वाले संकर आयन को ऋण आयनिक संकर आयन कहा जाता है|
 जैसे-
 धनायनिक संकर आयन -
[Ag(NH3)2]+ 
[Cu(NH3)4]++ 
[Co(NH3)6]+++  
ऋणायनिक संकर आयन -
[Fe(CN)6]4-
[Ag(CN)2]-
[Cu(Cl)4]--

(4) उप-सहसंयोजन तथा आयनिक मंडल-
केंद्रीय धातु परमाणु तथा उससे जुड़े लीगैंड को संकर यौगिक का उप-सहसंयोजन मंडल कहा जाता है| जो भाग जल में आयनित हो जाता है (बड़े कोष्टक के बाहर लिखी स्पीशीज) उसे संकर यौगिक का आयनिक मंडल कहा जाता है| जैसे- [Cu(NH3)4]SO4 विलयन निम्न प्रकार अायनित होता है-
 [Cu(NH3)4]SO4 <===>  [Cu(NH3)4]2+   +    SO4´´
इसमें  [Cu(NH3)4]2+ उप-सहसंयोजक मंडल तथा SO4´´ आयनिक मंडल है|
(5) उप-सहसंयोजन बहुभुज-
केंद्रीय धातु परमाणु या आयन से सीधे जुड़े लीगैंडो की त्रिविमीय व्यवस्था केंद्रीय परमाणु के चारों ओर बहुभुज बना देती है जिसे उपसहसंयोजन बहुभुज कहते हैं| उपसहसंयोजन बहुभुज चतुष्कफलकीय, वर्गाकार, तलीय, षटकोणीय, त्रिकोणीय, आदि आकृति के होते हैं|
(6) धनायनिक,ऋणायनिक तथा उदासीन संकर यौगिक-
(A) धनायनिक संकर-
वे यौगिक जिनमें कुल उपस्थित आवेश धनात्मक होता है, उन्हें धनायनिक संकर यौगिक कहते हैं| 
जैसे- [Co(NH3)6]Cl3
[Fe(H2O)6]Cl3
(B) ऋणायनिक संकर-
वे यौगिक जिनमें संकर आयन का आवेश ऋणात्मक होता है, उन्हें ऋणायनिक संकर यौगिक कहते हैं| 
जैसे- K[Ag(CN)2]
K4[Fe(CN)6]
(C) उदासीन संकर-
वे संकर यौगिक जिन पर कोई आवेश नहीं होता है, उन्हें उदासीन संकर यौगिक कहते हैं| 
जैसे- [Pt(NH3)2Cl2]
[Ni(CO)4]

(7) उपसहसंयोजन संख्या या समन्वय संख्या-
लीगैंड की वह अधिकतम संख्या जो कि किसी केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के साथ संयोग करती है, उसे उस केंद्रीय धातु परमाणु या आयन की उपसहसंयोजन संख्या कहा जाता है|
 जैसे-  K4[Fe(CN)6] में केंद्रीय Fe++  आयन से 6CN- लिगेंड जुड़े हैं अतः इसकी उपसहसंयोजक संख्या 6 है|
(8) केंद्रीय धातु परमाणु की ऑक्सीकरण संख्या-
केंद्रीय धातु परमाणु के अन्य परमाणु या परमाणु समूहों (लिगेंड) से संयोग के पश्चात उस पर उपस्थित शुद्ध वैद्युत आवेश की संख्या को केंद्रीय धातु परमाणु या आयन की ऑक्सीकरण संख्या कहा जाता है|
 जैसे- K4[Fe(CN)6] में आयरन की ऑक्सीकरण संख्या +2 है|
(9) होमोलेप्टिक एवं हेट्रोलेप्टिक संकर यौगिक-
वह संकर यौगिक जिसमें केंद्रीय धातु परमाणु या आयन केवल एक प्रकार के दाता समूह (लिगेंड) से जुड़ा होता है वह होमोलेप्टिक संकर यौगिक कहलाता है|
 जैसे- [Fe(CN)6]4- , 
[Co(NH3)6]3+
 जिन संकर यौगिकों में केंद्रीय धातु एक साथ एक से अधिक प्रकार के दाता समूहों से जुड़ा होता है वह हेट्रोलेप्टिक संकर यौगिक कहलाते हैं 
जैसे- [Cu(NH3)4Cl2]+,
[Co(NH3)5SO4]+

Wednesday, November 25, 2020

उप-सहसंयोजन यौगिक (संकर या जटिल यौगिक) (Co-ordination Compounds)

उप-सहसंयोजन यौगिक (संकर या जटिल यौगिक) (Co-ordination Compounds)
 
उप-सहसंयोजन रसायन-
रसायन विज्ञान की वह शाखा जिसमें उपसहसंयोजन यौगिकों या संकर यौगिकों का अध्ययन किया जाता है, उपसहसंयोजन रसायन कहलाती है|

द्विक-लवण तथा उप-सहसंयोजन यौगिक में अंतर-
(1) द्विक लवण(Double salt )-
ये वे आणविक या योगात्मक यौगिक हैं जो कि ठोस अवस्था में रहते हैं परंतु जल में घोलने पर यह अपने घटक आयनों में वियोजित हो जाते हैं| इस प्रकार घटक विलयन में अपनी पहचान खो देते हैं| यह लवण सामान्यतः दो लवणों को आपस में मिलाकर बनाए जाते हैं|
जैसे -
(a) पोटाश एलम,K2SO4.Al2(SO4)3.24H2O

K2SO4 + Al2(SO4)3 + 24H2O -->
K2SO4.Al2(SO4)3.24H2O
जब पोटाश एलम को जल में घोला जाता है तो यह अपनी पहचान खोकर अपने आयनों में टूट जाता है|
K2SO4.Al2(SO4)3.24H2O ----> 2K+  +  2Al3+  +  4SO42-  +  24H2O 

(b) मोहर लवण, FeSO4.(NH4)2SO4.6H2O

FeSO4 + (NH4)2SO4 + 6H2O -->
FeSO4.(NH4)2SO4.6H2O
जब मोहर लवण को जल में घोला जाता है तो यह अपनी पहचान खोकर अपने आयनों में टूट जाता है|
FeSO4.(NH4)2SO4.6H2O ----> Fe2+  +  2NH4+  +  2SO42-  +  6H2O 
(2) उप-सहसंयोजन यौगिक-
उप-सहसंयोजन यौगिक या उप-सहसंयोजक यौगिक वे आणविक या योगात्मक यौगिक होते हैं जिनमें केंद्रीय धातु परमाणु या आयन स्थाई रूप से कुछ निश्चित परमाणु या परमाणु के समूहों से जुड़ा रहता है, जिन्हें लीगैंड कहते हैं| लिगैंड कम से कम एक इलेक्ट्रॉन युग्म को केंद्रीय धातु या आयन को प्रदान करके उससे एक उप-सहसंयोजक बंध द्वारा जुड़ने की प्रवृति रखते हैं|
जैसे -K4[Fe(CN)6
यह विलयन में निम्न प्रकार वियोजित होता है-
K4[Fe(CN)6  <===> 4K+  +  [Fe(CN)6]





Sunday, November 22, 2020

लैंथेनॉयडस के सामान्य गुण

लैंथेनॉयडस के सामान्य गुण
(1) प्राप्ति-
यद्यपि इनको दुर्लभ मृदा तत्व समझा जाता है परंतु यह इतनी दुर्लभ नहीं है| यह प्रकृति में सूक्ष्म मात्रा में परंतु बहुतायत में वितरित रहते हैं|
(2) इलेक्ट्रॉनिक विन्यास-
इन तत्वों का सैद्धांतिक इलेक्ट्रॉनिक विन्यास [Xe]4fn5d16s2  प्रकार का होता है| चूँकि 4f उपकोश की उर्जा 5d  उपकोश की ऊर्जा के काफी निकट है अतः यह विभेद करना कठिन हो जाता है कि इलेक्ट्रॉन 4f उपकोश में प्रवेश कर रहा है या 5d  उपकोश में| यही कारण है कि इनके अनुमानित अभिविन्यास इनके अवलोकित अभिविन्यास से भिन्न होते हैं|अवलोकित अभिविन्यास मुख्यतः [Xe]4fn+16s2 प्रकार के होते हैं|

(3) ऑक्सीकरण अवस्थाएं-
लैंथेनॉयड्स की प्रमुख ऑक्सीकरण अवस्था +3 है इसके अतिरिक्त यह +2 तथा +4 अवस्था भी दर्शाते हैं| जलीय विलयन में +2 एवं +4 की अपेक्षा +3 अवस्था अधिक स्थाई होती है|
(4) चुंबकीय गुण-
इन तत्वों की अधिकांश आयन +3 अवस्था में अनुचुंबकीय प्रकृति के होते हैं तथा एक निश्चित चुंबकीय आघूर्ण प्रदर्शित करते हैं| La3+ तथा Lu3+ में शून्य चुंबकीय गुण पाया जाता है तथा यह अनु चुंबकीय व्यवहार प्रदर्शित नहीं करते हैं| 
          सामान्यतः अनुचुंबकीय व्यवहार एक या एक से अधिक अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की उपस्थिति के कारण होता है वह परमाणु या आयन जिसमें अयुग्मित इलेक्ट्रॉन अनुपस्थित होता है प्रतिचुंबकीय कहलाते हैं|
(5) आयनों के रंग-
कुछ अपवादों को छोड़कर लैंथेनॉएड्स के त्रिधनात्मक आयन रंगीन होते हैं| यह जलीय तथा ठोस दोनों अवस्थाओं में रंगीन होते हैं क्योंकि इनके f- कक्षकों में अयुग्मित इलेक्ट्रॉन होते हैं|
(6) परमाणु तथा आयनों का आकार (लैंथेनॉयड संकुचन)-
सीरियम से ल्युटीशियम की ओर जाने पर परमाणु तथा आयनों का आकार निरंतर घटता है| यह कमी त्रिधनात्मक आयनों में अधिक नियमित हैं|
    जब हम Ce से Lu की ओर गति करते हैं तो परमाणु क्रमांक बढ़ता है तथा अंतिम इलेक्ट्रॉन भीतरी 4f कक्षक में प्रवेश करता है| नाभिकीय आवेश बढ़ने पर एक 4f इलेक्ट्रॉन का दूसरे 4f इलेक्ट्रॉन द्वारा आवरणी प्रभाव 4f ऑर्बिटल की विशिष्ट आकृतियों के कारण बहुत अधिक प्रभावी नहीं होता है| अतः परमाणु संख्या में वृद्धि होने पर प्रत्येक 4f इलेक्ट्रॉन द्वारा अनुभावित प्रभावी नाभिकीय आवेश बढ़ता है| इसके कारण 4f उपकोश में प्रत्येक इलेक्ट्रॉन के प्रवेश के साथ आकार में थोड़ी सी कमी आ जाती है| इस प्रकार 4f उपकोश में प्रत्येक इलेक्ट्रॉन के बढ़ने पर प्रभावी नाभिकीय आवेश में वृद्धि होती है तथा आकार में संकुचन होता है| यह संकुचन निरंतर होता रहता है तथा इस प्रभाव को लैंथेनाइड संकुचन कहा जाता है|
लैंथेनाइड संकुचन के परिणाम-
(a) परमाण्विक एवं आयनिक त्रिज्या-
सामान्यतः समूह में परमाण्विक एवं आयनिक त्रिज्या परमाणु क्रमांक बढ़ने के साथ बढ़ती हैं| यह तथ्य प्रथम एवं द्वितीय संक्रमण श्रेणियों की तुलना करने पर स्पष्ट होता है|
(b) घनत्व-
लैंथेनाइड संकुचन के कारण परमाणु के आकार में कमी होती है फलस्वरुप लंथनॉएड्स के बाद उपस्थित सभी तत्वों में और सामान्य रूप से उनके घनत्व में वृद्धि पाई जाती है|
(c) आयनन विभव-
लैंथेनाइड संकुचन के कारण टंगस्टन तथा उससे आगे के तृतीय पंक्ति तत्वों की आयनन विभव भी प्रभावित होते हैं| लैंथेनाइड संकुचन की अनुपस्थिति में इनके आयनन विभव बहुत कम होने चाहिए थे तथा समूह में नीचे जाने पर इनमें नियमित कमी होने चाहिए थी|

(7) जटिल यौगिकों का निर्माण-
d-ब्लॉक तत्वों की अपेक्षा लैंथेनाइड कम मात्रा में तथा कठिनता से जटिल यौगिकों का निर्माण करते हैं|
(8) मिश्र धातु निर्माण-
लेंथेनॉइड्स अधिक सघन तथा उच्च गलनांक वाली धातु हैं| यह दूसरे धातुओं के साथ विशेषतः आयरन के साथ मिश्र धातु का निर्माण करते हैं| यह मिश्र धातुएं अत्यंत उपयोगी हैं क्योंकि इनमें उपस्थित दुर्लभ मृदा तत्व इस्पात की कार्य क्षमता को बढ़ा देते हैं|

f-ब्लॉक तत्व(लैंथेनॉयड्स तथा एक्टिनॉयड्स)

f-ब्लॉक तत्व(लैंथेनॉयड्स तथा एक्टिनॉयड्स)
जिन तत्वों में अंतिम इलेक्ट्रॉन या संयोजी इलेक्ट्रॉन (n-2)f उपकोश में प्रवेश करता है उन्हें f-ब्लॉक तत्व या अंतः संक्रमण तत्व कहा जाता है|
f-ब्लॉक तत्वों में दो श्रेणियां लैंथेनॉयड्स तथा एक्टिनॉयड्स श्रेणियां पाई जाती हैं|
(1) लैंथेनॉयड श्रेणी- 
इन्हें f-ब्लॉक तत्वों की प्रथम श्रेणी या प्रथम अंतः संक्रमण श्रेणी भी कहते हैं| इस श्रेणी में परमाणुओं के 4f ऑर्बिटल में अंतिम इलेक्ट्रॉन प्रवेश करते हैं तथा इस श्रेणी में सीरियम(Ce-58) से लेकर ल्युटिशियम(Lu-71) तक के 14 तत्व सम्मिलित हैं| यह तत्व आवर्त सारणी में लैंथेनम(La-57) का अनुसरण करते हैं तथा उससे भौतिक एवं रासायनिक गुणों में समानता प्रदर्शित करते हैं अतः इन्हें लैंथेनॉइड्स कहा जाता है|

(2) एक्टिनॉयड श्रेणी- 
इन्हें f-ब्लॉक तत्वों की द्वितीय श्रेणी या द्वितीय अंतः संक्रमण श्रेणी भी कहते हैं| इस श्रेणी में परमाणुओं के 5f ऑर्बिटल में अंतिम इलेक्ट्रॉन प्रवेश करते हैं तथा इस श्रेणी में थोरियम(Th-90) से लेकर लॉरेंशियम(Lr-103) तक के 14 तत्व सम्मिलित हैं| यह तत्व आवर्त सारणी में एक्टिनियम(Ac-89) का अनुसरण करते हैं तथा उससे भौतिक एवं रासायनिक गुणों में समानता प्रदर्शित करते हैं अतः इन्हें एक्टिनॉइड्स कहा जाता है|

    सभी अंतः संक्रमण तत्व धातु हैं तथा पृथ्वी की सतह में दुर्लभता से मिलते हैं अतः इन्हें सामूहिक रूप से दुर्लभ मृदा या दुर्लभ मृदा तत्व कहा जाता है|


Monday, November 16, 2020

संक्रमण तत्वों के सामान्य गुण(General properties of Transition elements)

संक्रमण तत्वों के सामान्य गुण(General properties of Transition elements)
 संक्रमण तत्वों के प्रमुख सामान्य गुण निम्न प्रकार हैं-

(1) परमाणु त्रिज्याएँ-
संक्रमण तत्वों की परमाणु त्रिज्याये s-ब्लॉक के तत्वों से कम जबकि p-ब्लॉक के तत्वों से अधिक होती हैं|
👉 सामान्यतः एक विशिष्ट श्रेणी से संबंधित संक्रमण तत्वों की परमाणु त्रिज्या परमाणु क्रमांक बढ़ने के साथ घटती जाती है| परमाणु त्रिज्या में कमी श्रेणी के मध्य के बाद थोड़ी कम हो जाती है|
    इसका कारण यह है कि परमाणु क्रमांक में वृद्धि के साथ आने वाला इलेक्ट्रॉन (n-1)d-उपकोश में प्रवेश पाता है और वाह्यतम इलेक्ट्रॉन को आवरणित करता है| आवरण प्रभाव d- इलेक्ट्रॉनों के बढ़ने के साथ बढ़ता जाता है| इस प्रकार नाभिकीय आवेश में हुई वृद्धि आवरणी प्रभाव द्वारा संतुलित हो जाता है| अतः प्रत्येक श्रेणी के मध्य के बाद परमाणु त्रिज्याये लगभग समान रहती हैं|
👉 प्रत्येक श्रेणी के अंत में परमाणु त्रिज्याओं में थोड़ी वृद्धि पाई जाती है|
         इसका कारण यह है कि श्रेणी के अंत में उस ऑर्बिटल में प्रवेशित इलेक्ट्रॉनों के बीच इलेक्ट्रॉन प्रतिकर्षण नाभिकीय आवेश में वृद्धि के बाद उत्पन्न आकर्षण बल पर प्रभावी हो जाता है| इस कारण इलेक्ट्रॉन मेघ का विस्तार होता है जिसके फलस्वरूप परमाणु त्रिज्या में वृद्धि होती है|

(2) आयनिक त्रिज्याएँ -
संक्रमण तत्वों की आयनिक त्रिज्याएँ भी उनकी परमाणु त्रिज्याओं के समान ही लक्षण प्रदर्शित करती हैं| आयनों की त्रिज्याएँ विभिन्न ऑक्सीकरण अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न होती हैं| सामान्यतः आयनिक त्रिज्याएँ ऑक्सीकरण अवस्था में वृद्धि के साथ घटती है |
(3) धात्विक गुण-
लगभग सभी संक्रमण तत्व विशिष्ट धात्विक गुणों जैसे- धात्विक चमक, आघातवर्धनीयता, उच्च तन्य शक्ति तथा उच्च ऊष्मीय एवं विद्युत चालकता आदि  को प्रदर्शित करते हैं|
(4)  जालक संरचनाएं-
लगभग सभी संक्रमण धातुओं में सरल hcp (hexagonal close packing), ccp(cubic close packing) या bcc(body centered cubic packing) जालक पाए जाते हैं|
(5) घनत्व -
किसी संक्रमण श्रेणी में बाएं से दाएं और जाने पर संक्रमण तत्वों के घनत्व में वृद्धि होती है क्योंकि किसी श्रेणी में बाएं से दाएं और जाने पर परमाणु त्रिज्या और इस प्रकार परमाण्विक आयतन में कमी होती है, जबकि परमाणु द्रव्यमान में वृद्धि होती है| इस कारण घनत्व में वृद्धि होती है| जिंक के अपेक्षाकृत कम घनत्व का कारण उसके परमाण्विक आयतन का अधिक होना है|
(6) गलनांक एवं क्वथनांक-
संक्रमण तत्वों के गलनांक एवं क्वथनांक सामान्यता काफी अधिक होते हैं| संक्रमण तत्वों के उच्च गलनांक एवं क्वथनांक उनमें उपस्थित धात्विक बंधों की शक्ति के कारण होते हैं| धात्विक बंधों की शक्ति अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की संख्या पर निर्भर करती है| अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की संख्या जितनी अधिक होगी धात्विक बंध उतना ही अधिक मजबूत होगा| एक संक्रमण श्रेणी में बाएं से दाएं ओर जाने पर मध्य तक अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की संख्या में वृद्धि होती है| मध्य के बाद अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की संख्या घटने लगती है, इस कारण मध्य के बाद श्रेणी में तत्वों के गलनांक और क्वथनांक लगातार घटते जाते हैं|
(7) आयनन एंथैल्पी या आयनन ऊर्जा-
संक्रमण तत्वों की आयनन ऊर्जा के मान s-ब्लॉक तत्वों की आयनन ऊर्जाओं के मान से अधिक लेकिन p-ब्लॉक तत्वों की आयनन ऊर्जाओं के मान से कम होते हैं |प्रथम संक्रमण श्रेणी के तत्वों की प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय आयनन एंथैल्पी के मान निम्न हैं-

👉 किसी दी गई संक्रमण श्रेणी में प्रथम आयनन ऊर्जाओं के मान परमाणु क्रमांक के बढ़ने के साथ बढ़ते हैं| यद्यपि यह वृद्धि नियमित नहीं होती है क्योंकि प्रवेशित इलेक्ट्रॉन (n-1)d उपकोश में प्रवेश पाता है तथा नाभिक से संयोजी इलेक्ट्रॉनों को आवरणित करता है| यही कारण है कि परमाणु क्रमांक की वृद्धि के साथ आयनन उर्जा में वृद्धि अपेक्षाकृत कम एवं अनियमित होती है|
(8) रंगीन आयनों का निर्माण-
संक्रमण धातुओं के अधिकतर यौगिक जलीय विलियन में और ठोस अवस्था में भी रंगीन होते हैं| यह s तथा p- ब्लॉक तत्वों के यौगिकों के विपरीत हैं जो कि सामान्यतः रंगहीन होते हैं|
     संक्रमण धातु आयनों का रंगीन होना विदलित d-ऑर्बिटलों में d-d संक्रमण के कारण होता है|
👉 पूर्ण रूप से भरे हुए d-ऑर्बिटल तथा पूर्ण रूप से रिक्त d-orbital वाले संक्रमण धातु आयन रंगहीन होते हैं| जबकि आधे भरे हुए या खाली d-ऑर्बिटलों वाले संक्रमण धातु रंगीन होते हैं|
(9) चुंबकीय गुण-
चुंबकीय व्यवहार के आधार पर पदार्थों को दो भागों में बांटा जा सकता है-
(a) अनुचुंबकीय पदार्थ-
वे पदार्थ जो चुंबकीय क्षेत्र में आकर्षित हो जाते हैं उन्हें अनुचुंबकीय पदार्थ कहते हैं और यह व्यवहार अनुचुंबकत्व कहलाता है| कोई पदार्थ अनुचुंबकीय व्यवहार तभी प्रदर्शित करता है जब उसके पास एक या एक से अधिक अयुग्मित इलेक्ट्रॉन होते हैं|
(b) प्रतिचुंबकीय पदार्थ-
वे पदार्थ जो चुंबकीय क्षेत्र में प्रतिकर्षित हो जाते हैं प्रतिचुंबकीय पदार्थ कहलाते हैं तथा यह गुण प्रति चुंबकत्व कहलाता है| कोई पदार्थ सभी इलेक्ट्रॉन युग्मित होने की दशा में ही प्रतिचुंबकत्व व्यवहार प्रदर्शित करता है|

पदार्थ का अनुचुंबकीय प्रभाव चुंबकीय आघूर्ण के रूप में व्यक्त किया जाता है| जिसे बोहर मैग्नेटोंस(B.M.)  के रूप में व्यक्त किया जाता है| 
अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की संख्या के रूप में चुंबकीय आघूर्ण को निम्न प्रकार से लिख सकते हैं-

(10) उत्प्रेरकीय गुण-
बहुत सी संक्रमण धातु में एवं उनके यौगिक विशेषतः ऑक्साइडस अनेक रासायनिक अभिक्रिया में उत्प्रेरक की तरह कार्य करते हैं| आयरन, कोबाल्ट, निकिल, प्लैटिनम, क्रोमियम तथा उनके यौगिक एक साधारणतः उत्प्रेरक की भांति प्रयोग किए जाते हैं|
 इसका कारण यह होता है कि संक्रमण धातु के d-उपकोश में रिक्त d-ऑर्बिटल होते हैं|
जैसे - हैबर विधि से अमोनिया बनाने में Fe एक उत्प्रेरक है |
(11) संकर यौगिक या जटिल यौगिकों का निर्माण-
संक्रमण धातु आयन एक बड़ी संख्या में जटिल यौगिकों का निर्माण करते हैं| इन यौगिकों में संक्रमण धातु आयन उन ऋणायन या उदासीन अणुओं के साथ संयोग करते हैं जिनमें इलेक्ट्रॉनों के एकाकी युग्म उपस्थित हों| केंद्रीय संक्रमण धातु आयन से जुड़े ऋण आयन या उदासीन अणुओं को लिगेंड कहते हैं| प्रत्येक लिगेंड उपसहसंयोजक बंध बनाने के लिए केंद्रीय धातु आयन को एक इलेक्ट्रॉन युग्म प्रदान करता है|
जैसे - K4[Fe(CN)6]
(12) अंतराकाशी यौगिकों का निर्माण-
अंतराकाशी यौगिक उन यौगिकों को कहा जाता है जिनका निर्माण धातुओं के क्रिस्टल जालक के भीतर H,C,या N जैसे छोटे परमाणुओं के आबद्ध हो जाने के कारण होता है| संक्रमण धातु, अन्य तत्वों जैसे- हाइड्रोजन, कार्बन, नाइट्रोजन, बोरॉन आदि के साथ संयोग करके बहुत अधिक संख्या में अंतराकाशी यौगिकों का निर्माण करते हैं| इन तत्वों के छोटे परमाणु संक्रमण धातु जालक में उपस्थित रिक्त स्थान में समाहित हो जाते हैं तथा इस प्रकार अंतराकाशी यौगिकों का निर्माण करते हैं| अंतराकाशी यौगिकों के निर्माण से धातु के कई भौतिक गुण जैसे- घनत्व, कठोरता, दृढ़ता, आघातवर्धनीयता तथा विद्युत चालकता आदि परिवर्तित हो जाते हैं|
 इस्पात एवं ढलवा लोहा आयरन के कार्बन के साथ बनाए गए अंतराकाशी यौगिकों के उदाहरण हैं|
(13) मिश्रधातु निर्माण-
संक्रमण धातु आपस में संयोग करके कई प्रकार की मिश्र धातुओं का निर्माण करती हैं| विभिन्न प्रकार के मिश्र धातु इस्पात तथा stainless-steel वास्तव में आयरन तथा अन्य धातुओं जैसे क्रोमियम, वैनेडियम, मॉलीब्लेडिनम, टंगस्टन, मैग्नीज आदि द्वारा निर्मित मिश्र धातु हैं|
जैसे - पीतल, काँसा आदि 

Sunday, November 15, 2020

d-ब्लॉक तत्व (संक्रमण तत्व) d- block elements (Transition elements)

d-ब्लॉक तत्व (संक्रमण तत्व) d- block elements (Transition elements)
 d-ब्लॉक तत्व या संक्रमण तत्व उन तत्वों  को कहा जाता है जिनमें अंतिम इलेक्ट्रॉन बाह्यतम कक्ष से पूर्व स्थित कक्ष के d- उपकक्ष में प्रवेश करते हैं अर्थात              वे (n-1)d-उपकक्ष में प्रवेश करते हैं|
       आवर्त सारणी में इन तत्वों को समूह 3,4,5,6,7,8,9,10,11 तथा 12 में रखा गया|
संक्रमण तत्वों की परिभाषा-
संक्रमण तत्व उन तत्वों को कहा जाता है जिनकी धरातल अवस्था में या रासायनिक रूप से महत्वपूर्ण ऑक्सीकरण अवस्था में स्थित आयनों में d-उपकोश (ऑर्बिटल) अपूर्ण पाये जाते हैं|
जैसे -
d-ब्लॉक की प्रथम संक्रमण श्रेणी में Cu  एवं Zn के अतिरिक्त अन्य सभी तत्वों में उनकी धरातल अवस्थाओं में अपूर्ण d-ऑर्बिटल पाए जाते हैं जबकि Cu  एवं Zn में अपूर्ण d-orbital नहीं होते| अतः Cu व Zn संक्रमण तत्व नहीं हैं|

Cu :> 1s2 2s2 2p6 3s2 3p6 4s1 3d10

Zn  :> 1s2 2s2 2p6 3s2 3p6 4s2 3d10

Ni संक्रमण तत्व है क्योंकि इसमें अपूर्ण d- ऑर्बिटल हैं|
Ni :> 1s2 2s2 2p6 3s2 3p6 4s2 3d8

संक्रमण तत्वों का वर्गीकरण-
संक्रमण तत्वों को 4 क्षैतिज श्रेणियों में बांटा गया है जिन्हें संक्रमण श्रेणीयाँ कहते हैं| यह संक्रमण श्रेणी निम्न हैं-
(1) प्रथम संक्रमण श्रेणी या 3d- श्रेणी-
इस श्रेणी में अंतिम इलेक्ट्रॉन 3d उपकोश में प्रवेश पाते हैं| इस श्रेणी में Sc (परमाणु क्रमांक 21) से Zn (परमाणु क्रमांक 30) तक 10 तत्व हैं| यह तत्व आवर्त सारणी के चतुर्थ आवर्त में स्थित हैं|
(2) द्वितीय संक्रमण श्रेणी या 4d- श्रेणी-
इस श्रेणी में अंतिम इलेक्ट्रॉन 4d उपकोश में प्रवेश पाते हैं| इस श्रेणी में Y (परमाणु क्रमांक 39) से Cd (परमाणु क्रमांक 48) तक 10 तत्व हैं| यह तत्व आवर्त सारणी के पाँचवे आवर्त में स्थित हैं|
(3) तृतीय संक्रमण श्रेणी या 5d- श्रेणी-
इस श्रेणी में अंतिम इलेक्ट्रॉन 5d उपकोश में प्रवेश पाते हैं| इस श्रेणी में La (परमाणु क्रमांक 57) तथा Hf (परमाणु क्रमांक 72) से Hg (परमाणु क्रमांक 80) तक 10 तत्व हैं| यह तत्व आवर्त सारणी के छठे आवर्त में स्थित हैं|
(4) चतुर्थ संक्रमण श्रेणी या 6d- श्रेणी-
इस श्रेणी में अंतिम इलेक्ट्रॉन 6d उपकोश में प्रवेश पाते हैं| इस श्रेणी में Ac (परमाणु क्रमांक 89) तथा Rf (परमाणु क्रमांक 104) से Cn (परमाणु क्रमांक 112)तक 10 तत्व हैं| यह तत्व आवर्त सारणी के सातवें आवर्त में स्थित हैं|

संक्रमण तत्वों का इलेक्ट्रॉनिक अभिविन्यास-
इनका सामान्य इलेक्ट्रॉनिक विन्यास    (n-1)d1-10 ns1-2 होता है|
     संक्रमण तत्वों के सामान्य इलेक्ट्रॉनिक विन्यास निम्न प्रकार हैं-
(1) प्रथम संक्रमण श्रेणी 3d- श्रेणी-
(2) द्वितीय संक्रमण श्रेणी 4d- श्रेणी-
(3) तृतीय संक्रमण श्रेणी 5d- श्रेणी-
(4) चतुर्थ संक्रमण श्रेणी 6d- श्रेणी-

Wednesday, November 11, 2020

ऐमीन के गुण( Properties of Amines)

ऐमीन के गुण( Properties of Amines)-

(A) भौतिक गुण-

(1) भौतिक अवस्था, रंग तथा गंध-
निम्न ऐमीन सामान्य ताप पर रंगहीन गैसे हैं जबकि उच्च ऐमीन रंगहीन द्रव हैं| निम्न ऐमीन की अमोनिया के समान प्रबल गंध होती है| उच्च ऐमीन की गंध मछली की गंध के समान होती है| 
       एेरोमेटिक ऐमीन सामान्य रूप से या तो रंगहीन द्रव या ठोस होते हैं इनकी गंध विशिष्ट होती है|
(2) विलेयता-
तीनों प्रकार के ऐमीन जल के साथ हाइड्रोजन बंध बनाने में सक्षम होते हैं| जल के साथ हाइड्रोजन बंध निर्माण के कारण कम अणुभार वाले एेलिफेटिक ऐमीन जल में अत्यधिक विलेय हैं|
   एेरोमेटिक ऐमीन जल में कम विलेय होते हैं| उच्च ऐरोमैटिक ऐमीन जल में लगभग अविलेय होते हैं|
(3) क्वथनांक-
ऐमीन के क्वथनांक तुलनीय अणुभार वाले हाइड्रोकार्बन के क्वथनांकों से अधिक लेकिन तुलनीय  अणुभार वाले एल्कोहल तथा कार्बोक्सिलिक अम्ल के  क्वथनांकों से कम होते हैं|
 अंतरआणविक हाइड्रोजन बंधों के निर्माण के कारण प्राथमिक तथा द्वितीयक ऐमीन संयोजित अणुओं के रूप में रहते हैं| यही कारण है कि इनके क्वथनांक तुलनीय अणुभार वाले हाइड्रोकार्बन से अधिक होते हैं|

(B) रासायनिक गुण-
(1) ऐमीन की भास्मिक प्रकृति-
अमोनिया की तरह सभी ऐमीनों के नाइट्रोजन परमाणु पर एकाकी इलेक्ट्रॉन युग्म होने के कारण यह सभी भास्मिक प्रकृति के होते हैं, अर्थात लुईस क्षार होते हैं|
RNH2 + H2O <==> RNH3 + OH´

(2) अम्लों से क्रिया-
लवण बनते हैं|
C2H5NH2 + HCl ----> C2H5NH3Cl 
(3) एल्किल हैलाइड से क्रिया (एेल्कलीकरण)-
जब ऐलिफेटिक ऐमीन की किसी एल्किल हैलाइड से क्रिया की जाती है तो एमीन में N-परमाणु से जुड़े H-परमाणु एक-एक कर एल्किल समूह से प्रतिस्थापित हो जाते हैं| इस प्रकार एक प्राथमिक ऐमीन(1°), पहले एक द्वितीय ऐमीन(2°) में पुनः एक तृतीयक ऐमीन(3°) में और अंत में एक चतुर्थक लवण में बदल जाता है|
           +RX / -HX 
R-NH2 --------------> R2NH 

          +RX / -HX 
R2NH --------------> R3N 

           +RX / -HX 
R3N --------------> R4NX 

(4) ऐसिलीकरण -
प्राथमिक तथा द्वितीयक ऐमीन अम्ल क्लोराइड तथा अम्ल ऐनहाइड्राइड से क्रिया कर N-प्रतिस्थापित ऐमाइड का निर्माण करते हैं| यह अभिक्रिया ऐसिलीकरण कहलाती है|

CH3COCl + CH3NH2 ------> CH3CONHCH3 + HCl 

 CH3COCl + CH3CH2NH2 ------> CH3CONHCH2CH3 + HCl 

(5) बेंजोयल क्लोराइड से क्रिया(बेंजोयलीकरण )-
किसी अणु में बेंजोयल समूह(C6H5CO-) को प्रविष्ट कराने की प्रक्रिया बेंजोयलीकरण कहलाती है|
  एलिफेटिक तथा ऐरोमैटिक दोनों प्रकार के ऐमीन का बैंजोयलीकरण पिरीडीन तथा जलीय NaOH की उपस्थिति में बेंजोयल क्लोराइड की क्रिया द्वारा किया जा सकता है|

C6H5COCl + CH3NH2 ------> C6H5CONHCH3 + HCl 

(6) नाइट्रस अम्ल से क्रिया -
तीनों प्रकार की ऐमीन नाइट्रस अम्ल  से किया करते हैं लेकिन अभिक्रियाओं की प्रकृति भिन्न होती हैं|
(a) प्राथमिक ऐमीन- पहले डाइएजोनियम लवण बनता है, फिर बाद में  नाइट्रोजन व ऐल्कोहल बनता है|
CH3NH2 + HNO2 + HCl -----> 
                  H2O 
CH3N2Cl --------> CH3OH + N2 + HCl 

C6H5NH2 + HNO2 + HCl -----> C6H5N2Cl
(b) द्वितीयक ऐमीन- N-नाइट्रोसामीन बनता है|

R2NH + HNO2 ----> R2N-N=O + H2O 
(c) तृतीयक ऐमीन-    ट्राईएल्किलअमोनियम लवण बनता है| यह लवण गर्म करने पर नाइट्रोसामीन तथा अल्कोहल बनता है|

R3N + HNO2 ----> (R3NH)NO2 -----> R2N-N=O  + ROH  

(7) कार्बिल ऐमीन अभिक्रिया(आइसोसायनाइड परीक्षण)-
यह अभिक्रिया प्राथमिक ऐलिफेटिक तथा प्राथमिक ऐरोमेटिक ऐमीन द्वारा दर्शाई जाती है|
  जब किसी ऐलिफेटिक या ऐरोमेटिक प्राथमिक ऐमीन को क्लोरोफॉर्म तथा ऐल्कोहलीय KOH के साथ गर्म किया जाता है, तो एक अत्यंत अप्रिय तीक्ष्ण गंध युक्त आइसोसायनाइड (कार्बिलऐमीन) प्राप्त होता है|
RNH2 + CHCl3 + 3KOH ----> RNC + 3KCl + 3H2O 
(8) ऐरोमेटिक ऐमीन की बेंजीन रिंग के कारण अभिक्रियाएं-
(इलेक्ट्रोफिलिक प्रतिस्थापन अभिक्रियाएं)-
ऐरोमेटिक ऐमीन में उपस्थित          ऐमीनो (-NH2) समूह एक इलेक्ट्रॉन निर्गत करने वाला समूह है और रिंग की ऑर्थ्रो(o-) तथा पैरा(p-) स्थितियों पर इलेक्ट्रॉन घनत्व बढ़ा देता है| जिस कारण ऑर्थो और पैरा स्थितियों पर इलेक्ट्रॉन स्नेही( इलेक्ट्रोफिलिक) प्रतिस्थापन अभिक्रिया होती हैं|
(a) हैलोजनीकरण-
ऐनिलीन की क्रिया ब्रोमीन जल से करने पर 2,4,6- ट्राइब्रोमोऐनिलीन का एक सफेद अवक्षेप प्राप्त होता है|

(b) नाइट्रीकरण-

(c) सल्फोनीकरण-
ऐमीन के उपयोग-
(1) कम अणुभार वाले ऐलिफेटिक ऐमीन, जैसे- डाईएथिल एमीन, ट्राईएथिल एमीन आदि का उपयोग प्रयोगशाला में तथा उद्योगों में विलायकों के रूप में किया जाता है|
(2) औषधियों के उत्पादन में
(3) ऐरोमेटिक ऐमीन जैसे- ऐनिलीन  आदि का उपयोग रंजक, ड्रग्स, बहुलक आदि के उत्पादन में किया जाता है| रबड़ उद्योग में भी इसका उपयोग किया जाता है|
(4) चतुर्थक लवणों का उपयोग प्रक्षालको (डिटर्जेंट) के रूप में किया जाता है|




ऐमीन के निर्माण की विधियांँ (Methods of preparation of Amines)

ऐमीन के निर्माण की विधियांँ -(Methods of preparation of Amines-

(1) हैलोएल्केन से (हॉफमैनअमोनोलिसिस )
जब हैलोएल्केन को एक बंद नली में अमोनिया के एल्कोहलिक विलयन के साथ 373K  पर गर्म किया जाता है तो प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक एमीन एवं चतुर्थक लवण का एक मिश्रण प्राप्त होता है| इस अभिक्रिया को हॉफमैन अमोनोलिसिस कहते हैं|
                 373K/ -HX 
RX + NH3 ---------------> RNH2

            +RX / -HX 
RNH2 ---------------> R2NH

            +RX / -HX 
R2NH ---------------> R3N

         +RX / -HX 
R3N ---------------> R4NX 

(2) नाइट्रोयौगिकों के अपचयन द्वारा-
एेलिफेटिक तथा ऐरोमैटिक दोनों प्रकार के ऐमीन का निर्माण Sn/HCl, LiAlH4 या हाइड्रोजन(Ni,Pt या Pd  की उपस्थिति में) नाइट्रो यौगिकों के अपचयन द्वारा किया जा सकता है|
                           Ni या Pt 
CH3NO2 + 3H2 -------->CH3NH2 + 2H2O 

(3) सायनाइड तथा आइसोसायनाइड के अपचयन द्वारा-
एेलिफेटिक तथा ऐरोमैटिक दोनों प्रकार के ऐमीन का निर्माण Sn/HCl, LiAlH4 या हाइड्रोजन(Ni,Pt या Pd  की उपस्थिति में) सायनाइड तथा आइसोसायनाइड के अपचयन द्वारा किया जा सकता है|
                      Ni या Pt 
CH3CN + 4H ----------->CH3NH2 

                      Ni या Pt 
CH3NC + 4H --------->CH3NHCH3

(4) हॉफमैन ब्रोमामाइड अभिक्रिया द्वारा-
इस विधि में किसी प्राथमिक एमाइड की क्रिया ब्रोमीन तथा कास्टिक पोटाश(KOH) से की जाती है जिससे प्राथमिक ऐमीन प्राप्त होता है| इसमें एमाइड की तुलना में एक कार्बन परमाणु कम हो जाता है|
CH3CONH2 + Br2 + 4KOH ----> CH3NH2 + K2CO3 + 2KBr + 2H2O 

(5) गैब्रियल थैलीमाइड अभिक्रिया द्वारा-
इसमें थैलीमाइड को सर्वप्रथम एल्कोहलिक KOH  के साथ गर्म करते हैं जिससे पोटेशियम थैलीमाइड प्राप्त होता है| जिसकी क्रिया उपयुक्त एल्किल हैलाइड से कराने पर N- ऐल्किलथैलीमाइड प्राप्त होता है| इसको उच्च दाब पर तनु HCl  द्वारा जल अपघटन करने से संगत प्राथमिक ऐमीन प्राप्त होता है|

(6) नाइट्रोबैंजीन से-
नाइट्रोबेंजीन का उपयुक्त अपचायक की उपस्थिति में अपचयन कराने से ऐनिलिन प्राप्त किया जा सकता है|
                               CuO 
C6H5NO2 + 6H -------------> C6H5NH2 + 2H2O 


Sunday, November 8, 2020

ऐमीन्स(Amines)

       ऐमीन्स(Amines)
ऐमीन्स को अमोनिया के ऐसे व्युत्पन्न माना जा सकता है जिनमें अमोनिया के एक या अधिक हाइड्रोजन परमाणुओं को एल्किल समूह से प्रतिस्थापित किया गया हो| इस प्रकार ऐमीन अमोनिया के एल्किल व्युत्पन्न हैं|
          -H, +R                -H, +R
NH3 -----------> R-NH2 ----------> 
            -H, +R
R2NH ----------> R3N 
जहां R एक एल्किल समूह है|

एेमीन का वर्गीकरण-
(A) अमोनिया अणु से एल्किल समूहों द्वारा विस्थापित H-परमाणु की संख्या के आधार पर-
इस आधार पर ऐमीन प्राथमिक(1°), द्वितीयक(2°) तथा तृतीयक(3°) के रूप में बांटे जा सकते हैं-
(1) प्राथमिक या प्राइमरी(1°) ऐमीन-
जिन कार्बनिक यौगिकों में क्रियात्मक समूह के रूप में -NH2 समूह उपस्थित रहता है उन्हें प्राथमिक या प्राइमरी या 1° ऐमीन कहा जाता है| इनका सामान्य सूत्र R-NH2 है|
जैसे - CH3-NH2,  C2H5-NH2
(2) द्वितीयक या सैकेंडरी(2°) ऐमीन-
जिन कार्बनिक यौगिकों में क्रियात्मक समूह के रूप में -NH- समूह(इमिनो समूह) उपस्थित रहता है उन्हें द्वितीयक या सैकेंडरी या 2° ऐमीन कहा जाता है| इनका सामान्य सूत्र R2NH है|
जैसे - CH3-NH-CH3,  
C2H5-NH-CH3
(3) तृतीयक या टर्शयरी(3°) ऐमीन-
जिन कार्बनिक यौगिकों में क्रियात्मक समूह के रूप में >N- समूह उपस्थित रहता है उन्हें तृतीयक या टर्शयरी या 3° ऐमीन कहा जाता है| इनका सामान्य सूत्र R3N है|
जैसे - (CH3)3N,  (C2H5)3N
चतुर्थक अमोनियम यौगिक-
ये यौगिक अमोनियम लवणों के ऐसे व्युत्पन्न हैं जिनमें अमोनियम आयन(NH4+) के चारों हाइड्रोजन परमाणु को एल्किल या एरिल समूहों द्वारा विस्थापित किया गया होता है| इस प्रकार सामान्य सूत्र R4NX प्रकार के यौगिकों को चतुर्थक अमोनियम यौगिक कहा जाता है|
जैसे - [R4N]X 
(B) नाइट्रोजन परमाणु से जुड़े समूहों  की प्रकृति के आधार पर-
इस आधार पर ऐमीन को एेलिफैटिक ऐमीन तथा एेरोमैटिक ऐमीन में बांटा जा सकता है|
(1) एेलिफैटिक ऐमीन-
जिन ऐमीन में नाइट्रोजन परमाणु एक या अधिक समान या भिन्न प्रकार के एल्किल समूह से जुड़ा रहता है, उन्हें ऐलिफैटिक ऐमीन कहा जाता है| यह प्राथमिक, द्वितीयक या तृतीयक हो सकते हैं|
 जैसे- CH3-NH2,  C2H5-NH2
CH3-NH-CH3,  
C2H5-NH-CH3

(2) एेरोमैटिक ऐमीन-
इन ऐमीनो में एक या अधिक एेरिल समूह भी जुड़े होते हैं| 
ये ऐमीन निम्न दो प्रकार के होते हैं-
(a) एेरिल एेमीन-
जिन ऐमीन में नाइट्रोजन परमाणु एक या अधिक समान या भिन्न प्रकार के ऐरिल समूहों से जुड़ा रहता है उन्हें एरिल ऐमीन कहा जाता है|
 जैसे- C6H5-NH2
C6H5-NH-C6H5
(b)  एरिलएल्किलऐमीन-
जिन ऐमीन में नाइट्रोजन परमाणु समान या भिन्न प्रकार की एक या अधिक एेरोमैटिक रिंग की पार्श्व श्रृंखलाओं से जुड़ा रहता है उन्हें एरिलएल्किलऐमीन कहा जाता है|
जैसे - C6H5-CH2-NH2
C6H5-CH2-NH-CH2-C6H5

ऐमीन का नामकरण-
(A) एेलिफैटिक ऐमीन का नामकरण-
(1) सामान्य पद्धति-
इस पद्धति में एेलिफैटिक एेमीन का नामकरण एेल्किलऐमीन तथा ऐमीनोएल्केन के रूप में किया जाता है| किसी ऐमीन का सामान्य नाम एक एकल सतत शब्द के रूप में लिखा जाता है|
 नाम को निम्न प्रकार लिखा जाता है-
जैसे -
CH3-NH2  
Methylamine or Aminomethane
CH3-CH2-CH2-NH2
n-propylamine or 1-Aminopropane

(CH3)3-N
Trimethylamine or N,N-dimethylaminomethane

(2) I.U.P.A.C. पद्धति -
इस पद्धति में ऐमीन का नामकरण एेल्कानामीन(Alkanamine)  के रूप में किया जाता है| आईयूपीएसी नाम प्राप्त करने के लिए पितृ एल्केन के अंग्रेजी नाम में से अंतिम 'e' को हटाकर अनुलग्न ऐमीन जोड़ा जाता है|
जैसे -
CH3-NH2  
Methanamine
CH3-CH2-NH2  
Ethanamine

 CH3-CH2-CH2-NH2
Propan-1-amine 

(B) एेरोमैटिक ऐमीन का नामकरण-
सामान्य पद्धति
सामान्य पद्धति में एेरोमेटिक ऐमीन का नामकरण ऐरिलऐमीन के रूप में किया जाता है| उपस्थित ऐरिल समूह के नाम में अनुलग्न ऐमीन(amine) जोड़कर यह नाम प्राप्त किया जाता है|
 सरलतम ऐरोमैटिक ऐमीन फेनिलएेमीन C6H5NH2 है| सामान्य रूप से इसे ऐनिलीन कहा जाता है| अन्य सरल ऐरिलऐमीन को प्रायः एेनिलीन के व्युत्पन्नों के रूप में नामित किया जाता है| जैसे-
I.U.P.A.C.पद्धति-
I.U.P.A.C.पद्धति में सरलतम ऐरिलऐमीन C6H5NH2 को बेंजीनामीन(Benzenamine) के रूप में व्यक्त किया जाता है| अन्य ऐरिलऐमिन को बैंजीनामीन के व्युत्पन्नों के रूप में नामित किया जाता है| रिंग पर उपस्थित अन्य प्रतिस्थापन्नो की  स्थितियों को उपयुक्त अंको द्वारा निरूपित किया जाता है| जैसे-
जैसे-

 ऐरिलऐल्किलऐमीन को एेलिफेटिक ऐमीन के व्युत्पन्नों के रूप में नामित किया जाता है| ऐरिल समूह की स्थिति को एक उपयुक्त अंक द्वारा निरूपित किया जाता है 

समूह 18 के तत्व: उत्कृष्ट गैसें (Group 18 Elements: The nobel gases)

समूह 18 के तत्व: उत्कृष्ट गैसें  (Group 18 Elements: The nobel gases)
 आवर्त सारणी के समूह 18 (शून्य समूह ) में हीलियम( He), नियोन(Ne), ऑर्गन (Ar), क्रिप्टन (Kr), जिनोन(Xe), रेडॉन (Rn), तथा ओगानेसन(Og) हैं|
     यह सभी एक परमाण्विक गैसे हैं तथा सामान्य परिस्थितियों में रासायनिक रूप से क्रियाशील नहीं है| अतः इन गैसों को पहले निष्क्रिय गैसें कहा जाता था| सन 1962 में तथा इसके पश्चात यह ज्ञात किया गया कि इन तत्वों में भी अल्प मात्रा में रासायनिक सक्रियता होती है| अतः आजकल इन गैसों को उत्कृष्ट गैसे कहा जाता है| यह गैसे वायुमंडल में बहुत थोड़ी मात्रा में ही पाई जाती हैं| अतः इन्हे दुर्लभ गैसें भी कहा जाता है|
समूह 18 के तत्वों के सामान्य लक्षण-
(A) इलेक्ट्रॉनिक विन्यास-
इनमें उपस्थित सभी ऑर्बिटल पूर्ण होते हैं| हीलियम का इलेक्ट्रॉनिक विन्यास 1s2 है जबकि अन्य सभी उत्कृष्ट गैसों के सामान्य अभिविन्यास ns2 np6 होते हैं|

(B) भौतिक गुण- 

(1) भौतिक अवस्था-
सभी उत्कृष्ट गैसे रंगहीन, गंधहीन तथा स्वादहीन हैं| ये सभी एकपरमाण्विक गैसे हैं|
(2) परमाणु त्रिज्या-
इनकी परमाणु त्रिज्याएँ वास्तव में  वांडरवाल्स त्रिज्याएं हैं तथा समूह 17 के संगत तत्व की परमाणु त्रिज्या से अधिक होती हैं| समूह में आगे बढ़ने पर परमाणु त्रिज्या में वृद्धि होती है|
(3) गलनांक तथा क्वथनांक-
इनके गलनांक तथा क्वथनांक समान अणुभार के अन्य पदार्थों की तुलना में काफी कम होते हैं| समूह में आगे बढ़ने पर गलनांक तथा क्वथनांक में नियमित वृद्धि होती हैं|
(4) आयनन ऊर्जा-
इनकी आयनन ऊर्जाओं के मान काफी अधिक होते हैं क्योंकि इनके परमाणु कक्षक में इलेक्ट्रॉन पूर्ण होते हैं| प्रत्येक उत्कृष्ट गैस की आयनन ऊर्जा अपने आवर्त में सबसे अधिक होती है| समूह में आगे बढ़ने पर आयनन ऊर्जा घटती है|
(5) जल में विलेयता -
उत्कृष्ट गैसें जल में अल्प मात्रा में ही विलेय हैं|
(6) इलेक्ट्रॉन लब्धि एंथैल्पी-
इनके कक्षको में इलेक्ट्रॉन पूर्ण होने के कारण इनकी इलेक्ट्रॉन लब्धि एंथैल्पी के मान बहुत अधिक धनात्मक होते हैं|

उत्कृष्ट गैसों का रसायन-
इन गैसों के संयोजी कोशों में इलेक्ट्रॉन पूर्ण होने के कारण यह गैसे लगभग अक्रिय होती हैं|
       लेकिन सन 1962 में नील बार्टलेट के अनुसंधान से यह पता चला कि अक्रिय गैसों में से कुछ गैसे रासायनिक रूप से क्रियाशील होती हैं| नील बार्टलेट की खोज के पश्चात जेनॉन के अनेक यौगिकों के निर्माण में सफलता प्राप्त की गई| क्रिप्टन के कुछ थोड़े से यौगिकों को ही अब तक प्राप्त किया जा सका है| रेडॉन के भी कुछ यौगिक प्राप्त किए गए हैं| लेकिन अब तक हिलियम, नियॉन तथा ऑर्गन के वास्तविक रासायनिक यौगिकों को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है|
जेनॉन के यौगिक-
              675K, Ni
Xe + F2 --------------> XeF2

                     675K
Xe + 2F2 --------------> XeF4

                 500-575K
Xe + 3F2 -----------------> XeF6

XeF6 + H2O --------------> XeOF4 + 2HF

XeF6 + 3H2O --------------> XeO3 + 6HF




Tuesday, November 3, 2020

अंतर हैलोजन यौगिक( Interhalogen compounds )

अंतर हैलोजन यौगिक
(Interhalogen compounds )
हैलोजन परस्पर आपस में क्रिया कर सामान्य सूत्र XYn प्रकार के अनेक महत्वपूर्ण योगिकों का निर्माण करते हैं जिन्हें अंतर हैलोजन यौगिक या भिन्न हैलोजन यौगिक कहा जाता है| सूत्र XYn में X तथा Y भिन्न हैलोजन परमाणु हैं तथा n एक पूर्णांक है जिसका मान 1,3,5,7 होता है|
अंतर हैलोजन यौगिकों का वर्गीकरण-
अंतर हैलोजन यौगिकों के सामान्य सूत्र XYn  में X सदैव आकार में बड़ा हैलोजन परमाणु तथा Y एक  छोटा हैलोजन परमाणु होता है| हैलोजन परमाणु X की ऑक्सीकरण अवस्था n के मान पर निर्भर करती है तथा +1, +3, +5 या +7 हो सकती है लेकिन हैलोजन परमाणु Y की ऑक्सीकरण अवस्था सदैव - 1 ही होती है|
 n के मान के आधार पर अंतर हैलोजन यौगिकों को निम्न चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है-
(1) XY1 प्रकार के अंतर हैलोजन यौगिक 
(2) XY3 प्रकार के अंतर हैलोजन यौगिक 
(3) XY5 प्रकार के अंतर हैलोजन यौगिक 
(4) XY7 प्रकार के अंतर हैलोजन यौगिक
बनाने की विधि-
अंतर हैलोजन यौगिकों को बनाने के लिए अलग-अलग हैलोजनों को उचित परिस्थितियों में क्रिया कराकर प्राप्त किया जा सकता है|
               437K 
Cl2 + F2 ----------> 2ClF 
                 573K 
Cl2 + 3F2 --------> 2ClF3 

I2 + Cl2 ----> 2ICl 
I2 + 3Cl2 ----> 2ICl3 
अंतर हैलोजन यौगिकों के सामान्य लक्षण-
(1) यह सहसंयोजकीय  प्रकृति के होते हैं|
(2) यह सभी यौगिक वाष्पशील होते हैं इनमें से अधिकतर अस्थिर हैं लेकिन कोई भी विस्फोटक नहीं है|
(3) इनकी प्रकृति प्रतिचुंबकीय होती है|
(4) जल से क्रिया करके जल अपघटित हो जाते हैं|
2IF5 + 5H2O -----> 10HF + I2O5
(5) यह प्रबल ऑक्सीकारकों की तरह व्यवहार करते हैं और अन्य तत्वों से क्रिया करके हैलाइडों का मिश्रण बनाते हैं|
अंतर हैलोजन यौगिकों के उपयोग-
(1) XY प्रकार के अंतर हैलोजन यौगिक हैलोजनीकारकों के रूप में प्रयोग में लाए जाते हैं|
(2) ClF3 तथा BrF3 का उपयोग फ्लोरीनीकारक के रूप में किया जाता है|
(3) ClF3 तथा BrF3 का उपयोग प्रोपेलेंट्स में ऑक्सीकारकों के रूप में किया जाता है|
(4) इनका उपयोग पॉलीहैलाइड्स के निर्माण में भी किया जाता है|

हाइड्रोजन क्लोराइड गैस तथा हाइड्रोक्लोरिक अम्ल

हाइड्रोजन क्लोराइड गैस तथा हाइड्रोक्लोरिक अम्ल

[A] हाइड्रोजन क्लोराइड गैस-
बनाने की विधियां-
हाइड्रोजन क्लोराइड गैस को निम्न अभिक्रियाओं द्वारा प्राप्त किया जा सकता है-
                Sunlight 
H2 + Cl2 --------------> 2HCl 

KCl + H2SO4 ------> KHSO4 + HCl 
BaCl2 + H2SO4 ------> BaSO4 + 2HCl 
प्रयोगशाला विधि-
NaCl + H2SO4 ------> NaHSO4 + HCl 
भौतिक गुण-
यह एक रंगहीन, तीक्ष्ण गंध युक्त गैस है तथा जल में विलेय है| यह संक्षारक प्रकृति की होती है और सूँघने पर नाक, गला तथा फेफड़ों में जलन उत्पन्न करती है|
 मुक्त H+ आयनों की अनुपस्थिति के कारण शुष्क हाइड्रोजन क्लोराइड गैस अम्लीय प्रकृति प्रदर्शित नहीं करती है और इसका लिटमस पेपर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है|
[B] हाइड्रोक्लोरिक अम्ल-
हाइड्रोक्लोरिक अम्ल वास्तव में हाइड्रोजन क्लोराइड गैस का एक जलीय विलयन होता है|
रासायनिक गुण-
(1) अम्लीय गुण-
हाइड्रोक्लोरिक अम्ल एक प्रबल एक शासकीय अम्ल है क्योंकि यह जलीय माध्यम में एक हाइड्रोजन आयन(H+) देता है|
HCl + H2O <==> H3O+  +  Cl´
(2) धातुओं से क्रिया-
सक्रियता श्रेणी में हाइड्रोजन से उपर स्थित धातुओं से क्रिया कर यह  हाइड्रोजन गैस देता है|
Mg + 2HCl ----> MgCl2 + H2
Zn + 2HCl ----> ZnCl2 + H2
(3) ऑक्साइडों तथा हाइड्रोक्साइडों से क्रिया-
यह धात्विक ऑक्साइडों तथा हाइड्रोक्साइडों  से क्रिया कर संगत लवण तथा जल देता है|
CuO + 2HCl -----> CuCl2 + H2O 
MgO + 2HCl -----> MgCl2 + H2O
NaOH + HCl -----> NaCl + H2O
Ca(OH)2 + 2HCl -----> CaCl2 + 2H2O
(4) कार्बोनेट तथा बाइकार्बोनेट से क्रिया -
 यह धात्विक कार्बोनेट तथा बाइकार्बोनेट से क्रिया कर संगत क्लोराइड बनाता है एवं CO2 गैस निकालता है|
Na2CO3 + 2HCl -----> 2NaCl + H2O + CO2

NaHCO3 + 2HCl -----> NaCl + H2O + CO2
(5) सल्फाइट तथा बाईसल्फाइट से क्रिया-
यह धात्विक सल्फाइट तथा बाईसल्फाइट से क्रिया कर SO2 गैस बनाती है तथा संगत लवण देती है|
Na2SO3 + 2HCl -----> 2NaCl + H2O + SO2

NaHSO3 + HCl -----> NaCl + H2O + SO2
(6) नाइट्रेट से क्रिया-
यह सिल्वर नाइट्रेट से क्रिया कर सिल्वर क्लोराइड का सफेद अवक्षेप देता है|
AgNO3 + HCl -----> AgCl + HNO3

हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के उपयोग-
(1) चर्म उद्योग तथा सोल्डरिंग कार्य में
(2) ग्लूकोज के निर्माण में इसका उपयोग स्टार्च को जल अपघटन में किया जाता है
(3) इस्पात उद्योग में इस्पात के पिकलिंग में
(4) हड्डियों से सरेस के निष्कर्षण में
(5) अम्ल राज(HCl+HNO3) के निर्माण में
(6) प्रयोगशाला अभिकर्मक के रूप में


फ्लोरीन का असंगत व्यवहार

फ्लोरीन का असंगत व्यवहार
समूह 17 का प्रथम सदस्य अर्थात फ्लोरीन अनेक गुणों में अपने समूह के अन्य सदस्यों से भिन्न व्यवहार प्रदर्शित करता है| फ्लोरीन के इस असंगत व्यवहार के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-
(1) इसके परमाणु आकार का कम होना
(2) विद्युत ऋणात्मकता का अधिक होना 
(3) संयोजी कक्ष में रिक्त d-ऑर्बिटलों की अनुपस्थिति|
फ्लोरीन तथा समूह के अन्य सदस्यों के व्यवहार में मुख्य अंतर निम्न है-
(1) क्रियाशीलता -
फ्लोरीन अपने समूह के अन्य तत्वों की तुलना में काफी अधिक क्रियाशील होता है|
(2) ऑक्सीकरण अवस्था-
फ्लोरीन अपने सभी यौगिकों में केवल -1 ऑक्सीकरण अवस्था ही प्रदर्शित करता है| जबकि समूह के अन्य सदस्य - 1 अवस्था के अतिरिक्त +1,+3,+ 5 तथा +7 अवस्थाएं भी प्रदर्शित करते हैं|
(3) इलेक्ट्रॉन लब्धि एंथैल्पी-
क्लोरीन से अधिक विद्युत ऋणात्मक होने के बाद भी फ्लोरीन की इलेक्ट्रॉन लब्धि एंथैल्पी का मान क्लोरीन की तुलना में कम ऋणात्मक होता है|
(4) हाइड्रोजन बंधों का निर्माण-
कम परमाणु आकार तथा अधिक विद्युत ऋणात्मकता के कारण फ्लोरीन अपने हाइड्राइडों में हाइड्रोजन बंधों का निर्माण करती है| समूह के अन्य तत्व है हाईड्राइडों में हाइड्रोजन बंधों का निर्माण नहीं कर पाते हैं|

Sunday, November 1, 2020

क्लोरीन(Chlorine)

         क्लोरीन(Chlorine) 
क्लोरीन की खोज शैले ने सन 1774 में की | डेवी ने सन 1810 में यह सिद्ध किया कि यह एक तत्व है और इसका नाम क्लोरीन( Greek : Chloros= greenish yellow) रखा गया |

क्लोरीन बनाने की सामान्य विधियाँ-
(1) HCl के ऑक्सीकरण द्वारा -
किसी ऑक्सीकारक पदार्थ द्वारा HCl को ऑक्सीकृत  करने पर क्लोरीन गैस प्राप्त हो जाती है जैसे-
MnO2 + 4HCl -----> MnCl2 + 2H2O + Cl2 

2KMnO4 + 16HCl -----> 2KCl + 2MnCl2 + 8H2O + 5Cl2 

K2Cr2O7 + 14HCl -----> 2KCl + 2CrCl3 + 7H2O + 3Cl2 

(2) सोडियम क्लोराइड द्वारा-
जब सोडियम क्लोराइड को MnO2 और सांद्र H2SO4 के साथ गर्म करते हैं तो क्लोरीन गैस प्राप्त होती है|
2NaCl + MnO2 + 3H2SO4 -----> 2NaHSO4 + MnSO4 + 2H2O + Cl2

(3) क्लोरीन बनाने की प्रयोगशाला विधि-
एक फ्लास्क में MnO2 लेकर उसमें थिसिल कीप सहायता से सांद्र HCl अम्ल डाला जाता है| मिश्रण को गर्म करने पर क्लोरीन गैस निकलती है| इसे जल तथा सांद्र H2SO4 में क्रमशः बारी-बारी से प्रवाहित करने के बाद एक गैस जार में एकत्र कर लिया जाता है|
MnO2 + 4HCl -----> MnCl2 + 2H2O + Cl2 
(4) क्लोरीन के औद्योगिक निर्माण की विधि-
(a) डीकन की विधि-
इस विधि में हाइड्रोजन क्लोराइड गैस(HCl) को उत्प्रेरक की उपस्थिति में वायु की ऑक्सीजन(O2) द्वारा ऑक्सीकृत करके क्लोरीन गैस(Cl2) बनाई जाती है इस क्रिया में क्यूप्रिक क्लोराइड (CuCl2) उत्प्रेरक के रूप में लिया जाता है|
 इस विधि में ऑक्सीकारक स्तंभ का ताप 450°C होता है तथा इसमें क्यूप्रिक क्लोराइड उत्प्रेरक के रूप में रखा रहता है|

(b) वैद्युत अपघटनी विधि-
क्लोरीन गैस के निर्माण की आधुनिक विधि है इस विधि में सोडियम क्लोराइड के जलीय विलयन ब्रायन या पिघले हुए सोडियम क्लोराइड का वैद्युत अपघटन किया जाता है जिससे एनोड पर क्लोरीन गैस प्राप्त होती है| इसके लिए प्रायः नेल्सन सेल का प्रयोग किया जाता है|
NaCl <==> Na+  +  Cl´
(कैथोड पर)
2H2O + 2e´ ----> H2(g) + 2OH´ 
Na+  +  OH´ <==> NaOH 
(एनोड पर )
2Cl´ -----> Cl2(g) + 2e´

क्लोरीन गैस के भौतिक गुण-
(1) यह एक हरे-पीले रंग की तीक्ष्ण गंध युक्त तथा विषैली गैस है|
(2) यह जल में विलेय है| इसके जलीय विलयन को क्लोरीन जल कहते हैं|
(3) यह वायु तथा ऑक्सीजन से भारी है|
(4) यह 238.4K पर द्रव अवस्था में तथा 172.4K पर ठोस अवस्था में बदल जाती है|
क्लोरीन गैस के रासायनिक गुण-
(1) ज्वलनशीलता-
यह गैस स्वयं नहीं जलती है परंतु कुछ पदार्थों को जलने में सहायता देती है| जैसे- सल्फर को
(2) अधातुओं के साथ क्रिया-
यह अधिकांश अधातुओं के साथ क्रिया करके उनके क्लोराइड बनाती है|
2P + 3Cl2 ---> 2PCl3

2P + 5Cl2 ---> 2PCl5

H2 + Cl2 ---> 2HCl
(3) धातुओं के साथ क्रिया-
लगभग सभी धातु क्लोरीन के साथ क्रिया करके अपने क्लोराइड लवण बनाते हैं|
2Al + 3Cl2 ---> 2AlCl3
Cu + Cl2 ---> CuCl2
2Na + Cl2 ---> 2NaCl
Zn + Cl2 ---> ZnCl2
Mg + Cl2 ---> MgCl2
(4) सोडियम हाइड्रोक्साइड के साथ क्रिया-
ठंडे तथा तनु सोडियम हाइड्रोक्साइड विलयन में प्रवाहित करने पर यह सोडियम हाइपोक्लोराइट(NaOCl)बनाती है|
Cl2 + 2NaOH ----> NaCl + NaOCl + H2O 
गर्म तथा सांद्र सोडियम हाइड्रोक्साइड विलयन में प्रवाहित करने पर यह सोडियम क्लोरेट (NaClO3) बनाती है|
Cl2 + 6NaOH ----> 5NaCl + NaClO3 + 3H2O 
(5) बुझे हुए चूने के साथ क्रिया-
शुष्क बुझे हुए चूने पर प्रवाहित करने पर यह विरंजक चूर्ण (कैलशियम क्लोरो हाइपोक्लोराइट) बनाती है|
Cl2 + Ca(OH)2 ----> CaOCl2 + H2O 
(6) अमोनिया के साथ क्रिया-
यह अमोनिया के साथ क्रिया करके अमोनियम क्लोराइड तथा नाइट्रोजन गैस बनाती है|
3Cl2 + 8NH3 ----> 6NH4Cl + N2 
 यदि क्लोरीन की अधिक मात्रा की क्रिया अमोनिया की कम मात्रा से कराई जाती है तो नाइट्रोजन ट्राई क्लोराइड बनता है जो एक अति विस्फोटक पदार्थ है|
3Cl2 + NH3 ----> NCl3 + 3HCl
(7) ऑक्सीकारक गुण-
क्लोरीन एक प्रबल ऑक्सीकारक है तथा यह विभिन्न पदार्थों को ऑक्सीकृत कर देती है|
2KBr + Cl2 ----> 2KCl + Br2
2KI + Cl2 ----> 2KCl + I2
H2S + Cl2 ----> 2HCl + S 
2FeCl2 + Cl2 ----> 2FeCl3
(8) प्रतिस्थापन अभिक्रिया-
क्लोरीन विभिन्न कार्बनिक यौगिकों के साथ प्रतिस्थापन अभिक्रिया प्रदर्शित करता है|
                  Sunlight 
CH4 + Cl2 --------------> CH3Cl + HCl 
(9) विरंजक तथा जीवाणुनाशक गुण-
प्रबल ऑक्सीकारक होने के कारण यह एक तीव्र विरंजक तथा जीवाणुनाशक होता है| यह  गीले फूल, पत्तियों आदि का रंग उड़ा देता है|
H2O + Cl2 ----> 2HCl + O 

रंगीन पदार्थ + O -----> रंगहीन पदार्थ

क्लोरीन के उपयोग-
(1) इसका उपयोग विरंजक चूर्ण, ब्रोमीन, क्लोरोफॉर्म, कार्बन टेट्राक्लोराइड, फॉस्जीन आदि यौगिकों के बनाने में किया जाता है|
(2) इसका उपयोग जीवाणुनाशक के रूप में पेयजल के शुद्धिकरण के लिए किया जाता है|
(3) क्लोरीन गैस तथा क्लोरीन जल का उपयोग प्रयोगशाला में एक अभिकर्मक के रूप में किया जाता है|
(4) इसका उपयोग धातु निष्कर्षण तथा शोधन में किया जाता है|
(5) इसका उपयोग रंजक तथा विस्फोटक पदार्थ बनाने में किया जाता है|
(6) इसका उपयोग अत्यंत विषैली गैसें जैसे फॉस्जीन, मस्टर्ड गैस तथा अश्रु गैस बनाने में किया जाता है|
(7) इसका उपयोग विरंजक के रूप में कागज, कपड़ों आदि का रंग उड़ाने में किया जाता है|