Advance Chemistry

Sunday, January 31, 2021

कार्बोहाइड्रेट्स (Carbohydrates)

कार्बोहाइड्रेट्स (Carbohydrates)
कार्बोहाइड्रेट्स कार्बन, हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन के प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले कार्बनिक यौगिक हैं तथा इन्हें जैव अणुओं  का सर्वाधिक महत्वपूर्ण वर्ग माना जा सकता है| यह प्रकृति में प्रचुरता में पाए जाते हैं| ग्लूकोज, फ्रक्टोज, स्टार्च, सुक्रोज, सेल्यूलोज आदि प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले कुछ कार्बोहाइड्रेट्स हैं|
         कार्बोहाइड्रेट्स कार्बन, हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन द्वारा बने होते हैं| अधिकांश कार्बोहाइड्रेट्स में हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन जल के समान ही 2:1 अनुपात में उपस्थित होते हैं| अतः इन्हें सामान्य सूत्र Cx(H2O)y  के द्वारा व्यक्त किया जा सकता है जहां x एवं y पूर्णांक हैं| पहले उपरोक्त तथ्य के आधार पर ऐसा मत था कि ये यौगिक कार्बन के हाइड्रेट्स हैं| अतः इन्हे कार्बोहाइड्रेट्स नाम दिया गया| कुछ समय पश्चात यह ज्ञात हुआ कि इन यौगिकों में हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन जल अणुओं के रूप में उपस्थित नहीं हैं| इसके अतिरिक्त इस वर्ग के अनेक यौगिकों जैसे- रैमनोज (C6H12O5), डीऑक्सीराइबोज(C5H10O4), आदि  में हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन का अनुपात 2:1 नहीं होता है तथा इन्हे कार्बन के हाइड्रेट के रूप में प्रदर्शित नहीं किया जा सकता है| इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कार्बोहाइड्रेट्स कार्बन के हाइड्रेट्स नहीं हैं| वास्तव में कार्बोहाइड्रेट में ऑक्सीजन एल्डिहाइड (-CHO),कीटो (>C=O) या हाइड्रॉक्सिल(-OH) समूहों के रूप में उपस्थित रहता है| 
      वर्तमान में कार्बोहाइड्रेट्स को निम्न प्रकार परिभाषित करते हैं-
   कार्बोहाइड्रेट्स पॉलीहाइड्रॉक्सी एल्डिहाइड या पॉलीहाइड्रॉक्सी कीटोन  या वे वृहत बहुलक अणु हैं जो जलअपघटन पर पॉलीहाइड्रॉक्सी एल्डिहाइड एवं   पॉलीहाइड्रॉक्सी कीटोन उत्पन्न करते हैं|

कार्बोहाइड्रेट्स का वर्गीकरण (Classification of Carbohydrates )-

[A] जल अपघटन पर व्यवहार के आधार पर वर्गीकरण-
इस आधार पर कार्बोहाइड्रेट्स को निम्नलिखित तीन भागों में बांटा जा सकता है-
(1) मोनोसैकेराइड्स (monosaccharides)-
ये वे पॉली हाइड्रॉक्सी एल्डिहाइड या पॉलीहाइड्रॉक्सी कीटोंस होते हैं जो जल अपघटन द्वारा पुनः सरल कार्बोहाइड्रेट्स में अपघटित नहीं होते हैं|
    इस प्रकार यह सरलतम कार्बोहाइड्रेट्स हैं एवं जलअपघटित नहीं किए जा सकते| इनका सामान्य सूत्र (CH2O)n  है जहां n= 3-7 है|   
    मोनोसैकेराइड्स के कुछ सामान्य उदाहरण ग्लूकोज (C6H12O6), फ्रक्टोज (C6H12O6), गैलेक्टोज (C6H12O6), राइबोज (C6H12O5),  आदि हैं|
(2)ऑलिगोसैकेराइड्स (oligosaccharides)-
वे कार्बोहाइड्रेट्स जो जल अपघटन पर एक निश्चित संख्या में (2-10) मोनोसैकेराइड अणुओं का निर्माण करते हैं ओलिगोसैकेराइड्स कहलाते हैं| 
          एक ओलिगोसैकेराइड अणु मोनोसैकेराइड इकाइयों की एक निश्चित संख्या (2-10) द्वारा निर्मित होते हैं| जब उनका जल अपघटन किया जाता है तो यह विखंडित होकर इन इकाइयों का निर्माण करता है| जल अपघटन पर निर्मित मोनोसैकेराइड इकाइयों की संख्या के आधार पर इन्हें पुनः निम्न भागों में बांटा जा सकता है-
(i) डाईसैकेराइड्स (Disaccharides)-
वे कार्बोहाइड्रेट्स जो जल अपघटन पर समान या भिन्न प्रकार की मोनोसैकेराइड्स की दो इकाइयों का निर्माण करते हैं डाईसैकेराइड कहलाते हैं| जैसे- सुक्रोज़( C12H22O11), माल्टोज(C12H22O11),लैक्टोज (C12H22O11) आदि 

C12H22O11+ H2O ------> C6H12O6 + C6H12O6

(ii) ट्राईसैकेराइड्स (Trisaccharides)-
वे कार्बोहाइड्रेट्स जो जल अपघटन पर समान या भिन्न प्रकार की मोनोसैकेराइड्स की तीन इकाइयों का निर्माण करते हैं ट्राईसैकेराइड कहलाते हैं| जैसे- रैफिनोज़( C18H32O16)

C18H32O16+ H2O ------> C6H12O6 + C6H12O6 + C6H12O6

(iii) टेट्रासैकेराइड्स (Tetrasaccharides)-
वे कार्बोहाइड्रेट्स जो जल अपघटन पर समान या भिन्न प्रकार की मोनोसैकेराइड्स की चार इकाइयों का निर्माण करते हैं टेट्रासैकेराइड कहलाते हैं| जैसे- स्टैकाईरोज ( C24H42O21)  
C24H42O21+ H2O ------> C6H12O6 + C6H12O6 + 2C6H12O6
(3) पॉलीसैकेराइड्स (Polysaccharides)-
वे कार्बोहाइड्रेट्स जो जल अपघटन पर अत्यधिक संख्या में मोनोसैकेराइड्स अणुओ का निर्माण करते हैं पॉलीसैकेराइड्स कहलाते हैं| पॉलिसैकेराइड्स वास्तव में उच्च अणुभार वाले बहुलक होते हैं| एक पॉलिसैकेराइड अणु बहुत सी मोनोसैकेराइड्स इकाईयों द्वारा निर्मित होता है| जब अणु का जल अपघटन किया जाता है तो घटक इकाइयां अलग हो जाती हैं| इस प्रकार यह जल अपघटन पर अत्यधिक संख्या में  मोनोसैकेराइड्स इकाइयों का निर्माण करते हैं| पॉलिसैकेराइड का सामान्य सूत्र (C6H10O5)n है जहां n= 100-3000 है|
   पॉलिसैकेराइड के कुछ सामान्य उदाहरण स्टार्च, सेल्यूलोज, ग्लाइकोजन आदि हैं|

[B] स्वाद के आधार पर -
(1) शर्करा -
मीठे स्वाद वाले कार्बोहाइड्रेट्स को शर्करा कहा जाता है| सभी मोनोसैकेराइड्स डाईसैकेराइड्स इस श्रेणी से संबंधित हैं| ग्लूकोज, फ्रक्टोज, सुक्रोज, लेक्टोज आदि शर्कराओं के कुछ सामान्य उदाहरण हैं|

(2) अशर्करा-
वे कार्बोहाइड्रेट जो स्वाद में मीठे नहीं होते हैं, अशर्करा कहलाते हैं| स्वाद रहित पॉलीसैकेराइड्स इस श्रेणी से संबंधित हैं|  स्टार्च, सेल्युलोस आदि अशर्कराओं के सामान्य उदाहरण हैं|
[C] अपचायक क्षमता के आधार पर -
(1) अपचायक शर्करा -
वे कार्बोहाइड्रेट जो टॉलन अभिकर्मक एवं फेहलिंग विलयन को अपचयित करने में सक्षम होते हैं, उन्हें अपचायक शर्करा कहा जाता है| सुक्रोज को छोड़कर सभी      मोनोसैकेराइड्स एवं डाईसैकेराइड्स अपचायक शर्करायें हैं|
(2) अनअपचायक शर्करा -
वे कार्बोहाइड्रेट्स जो टॉलन अभिकर्मक एवं फेहलिंग विलयन को अपचयित करने में असमर्थ होते हैं, अनअपचायक शर्करा कहलाते हैं| सुक्रोज एक अनअपचायक शर्करा है|



Thursday, January 21, 2021

ठोसों में अपूर्णता (दोष) [Imperfections (defects) in solids]

ठोसों में अपूर्णता (दोष) [Imperfections (defects) in solids]
किसी ठोस के क्रिस्टल में परमाणुओं के पूर्ण क्रमिक व्यवस्था से कोई भी विचलन ठोस की अपूर्णता या दोष कहलाता है|ठोसों में उपस्थित अपूर्णता या दोष निम्न दो प्रकार के होते हैं-
(1) बिंदु दोष (Point defects)
(2)रेखीय दोष (Linear defects)

(1) बिंदु दोष (Point defects)-
क्रिस्टल में किसी परमाणु या परमाणु समूह के निकट कणों के सामान्य आवर्ती व्यवस्था से विचलित होने के फलस्वरूप उत्पन्न दोषों को बिंदु दोष कहा जाता है बिंदु दोष निम्न तीन प्रकार के होते हैं- 
(a) स्टॉयशियोमीट्रिक दोष (stoichiometry defects )
(b) अस्टॉयशियोमीट्रिक दोष (nonstoichiometry defects)
(c) अशुद्धि दोष (impurity defects)

(a) स्टॉयशियोमीट्रिक दोष (stoichiometry defects)-
जब क्रिस्टल में उपस्थित दोष के कारण क्रिस्टल की स्टॉयशियोमीट्रिक (अर्थात क्रिस्टल में उपस्थित धनायनों तथा ऋणायनों का अनुपात परिवर्तित नहीं होती है तो दोष को स्टॉयशियोमीट्रिक दोष कहा जाता है|
 यह दोष निम्न प्रकार के होते हैं-
(i) रिक्तिका दोष (vacancy defects)
(ii) अंतराकाशी दोष (interstitial defects )
(iii) शॉटकी दोष (schotki defects)
(iv) फ्रेंकेल दोष (Frenkel defects)

(i) रिक्तिका दोष (vacancy defects)-
इस प्रकार के दोष में कुछ परमाणु अपने नियत स्थान से हटकर ठोस से निकल जाते हैं और उस जगह एक रिक्त स्थान उत्पन्न हो जाता है| तो इस प्रकार के दोष को रिक्तिका दोष कहा जाता है| इस प्रकार का दोष सामान्यता ऐसे ठोसों में होता है जिनमें आयन नहीं होते, केवल परमाणु होते हैं|
(ii) अंतराकाशी दोष (interstitial defects )-
इस प्रकार के दोष में ठोसों के कुछ परमाणु अपने नियत स्थान से हटकर अंतराकाशी स्थान में चले जाते हैं तो इस प्रकार के दोष को अंतराकाशी दोष कहा जाता है|
(iii) शॉटकी दोष (schotki defects)-
इस प्रकार के दोष में समान मात्रा में धनायन व ऋण आयन अपने नियत स्थान से हटकर ठोस में से निकल जाते हैं तो इस प्रकार के दोष को शॉटकी दोष कहते हैं| इस प्रकार का दोष सामान्यतःआयनिक यौगिकों में उत्पन्न होता है| समान मात्रा में धन आयन व ऋण आयन के अनुपस्थित रहने से ठोस के आवेश पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता परंतु ठोसों का घनत्व कम हो जाता है|
example - NaCl, KCl, KBr आदि 
(iv) फ्रेंकेल दोष (Frenkel defects)-
यह दोष उस समय उत्पन्न होता है जब एक आयन (प्रायः धनायन) अपनी जालक स्थिति को त्याग कर एक अंतराकाशी स्थिति को ग्रहण कर लेता है| इस दोष के होने पर भी क्रिस्टल विद्युतीय रूप में उदासीन रहता है क्योंकि क्रिस्टल में धनायनों की संख्या ऋणायनों की संख्या के बराबर ही रहती है| इस दोष के कारण क्रिस्टल के घनत्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है|
example - ZnS, AgCl, AgBr आदि 
(b) अस्टॉयशियोमीट्रिक दोष (nonstoichiometry defects)-
जब क्रिस्टल में उपस्थित दोष के कारण धनायन तथा ऋण आयन की संख्या का अनुपात (अर्थात क्रिस्टल की स्टॉयशियोमीट्री) परिवर्तित हो जाता है तो दोस्त को अस्टॉयशियोमीट्रिक दोष कहा जाता है|
(i)  ऋणायन रिक्तियों के कारण धातु अधिकता दोष- 
इस प्रकार का दोष उस समय उत्पन्न होता है जब एक ऋणायन अपनी जालक स्थिति से अनुपस्थित होकर एक छिद्र का निर्माण करता है और छिद्र में एक इलेक्ट्रॉन समावेशित हो जाता है ताकि क्रिस्टल की विद्युत उदासीनता बनी रहे|
example - KCl, LiCl आदि 
(ii)  धनायन रिक्तियों के कारण धातु न्यूनता दोष- 
यह दोष उस समय उत्पन्न होता है जब एक धनायन (धातु आयन) अपनी सामान्य जालक स्थिति में अनुपस्थित रहता है और उच्च ऑक्सीकरण अवस्था में स्थित एक निकटवर्ती धातु आयन आवेश को संतुलित करता है ताकि क्रिस्ट्ल की विद्युत उदासीनता बनी रहे|

(c) अशुद्धि दोष (impurity defects)-
यह दोष उस समय उत्पन्न होता है जब एक ठोस के क्रिस्टल में किसी दूसरे पदार्थ के परमाणु, अणु या आयन उपस्थित होते हैं|

Thursday, January 14, 2021

इकाई सैलों के प्रकार (Types of unit cell)

इकाई सेल के प्रकार (Types of unit cell) -
विभिन्न प्रकार के क्रिस्टलों में उपस्थित इकाई सैल निम्न चार प्रकार के होते हैं-
(1) मौलिक सैल (primitive or basic cell)
(2) फलक केंद्रित इकाई सैल (face centred unit cell)
(3) अन्तः केंद्रित इकाई सैल (body centred unit cell)
(4) किनारा केंद्रित या अन्तःकेंद्रित इकाई सैल (side centred or end centred unit cell)

(1) मौलिक सैल (primitive or basic cell)-
वह इकाई सैल जिसमें घटक कण केवल उसके कोनों पर उपस्थित होते हैं, मौलिक इकाई सैल या सरल इकाई सैल कहा जाता है|
   मौलिक इकाई सैल युक्त क्रिस्टल जालक को सरल क्रिस्टल जालक कहा जाता है|
 सात क्रिस्टल तंत्र-
 एक फ्रेंच वैज्ञानिक ऑगस्ट ब्रेविस ने सन 1850 में यह देखा कि क्रिस्टलो में केवल 7 प्रकार के मौलिक इकाई सैल होते हैं| इन्हें ब्रेविस जालक या ब्रेविस इकाई सैल कहते हैं| प्रत्येक तंत्र को किनारों की लंबाई को a, b तथा c  तथा कोणों के परिमाप alpha, beta तथा gamma  के द्वारा अलग अलग किया जा सकता है| यह तंत्र निम्न है-
(1) घनीय तंत्र(cubic system)
(2) चतुष्कोणीय तंत्र(tetragonal system)
(3) ऑर्थोरोम्बिक तंत्र(orthorhombic system)
(4) त्रिकोणीय तंत्र(trigonal or rhombohedral system)
(5) मोनोक्लिनिक तंत्र(monoclinic system)
(6) षटकोणीय तंत्र(hexagonal system)
(7) ट्राईक्लीनिक तंत्र(triclinic system)
(2) फलक केंद्रित इकाई सैल (face centred unit cell)-
वे इकाई सैल जिनमें घटक कण उसके कोनो के साथ साथ प्रत्येक फलक के केंद्र पर भी स्थित होते हैं, फलक केंद्रित इकाई सैल कहलाते हैं|
(3) अन्तः केंद्रित इकाई सैल (body centred unit cell)-
वह इकाई सैल जिसमें कोनो के अतिरिक्त एक घटक कण केंद्र पर भी स्थित होता है, अंतः केंद्रित इकाई सैल कहलाते हैं|
(4) किनारा केंद्रित या अन्तःकेंद्रित इकाई सैल (side centred or end centred unit cell)-
वे इकाई सैल जिनमें घटक कण उसके कोनो के साथ-साथ फलकों के केवल एक सेट के केंद्र पर भी स्थित होते हैं, उन्हें किनारा केंद्रित या अन्तःकेंद्रित इकाई सैल कहा जाता है| इस प्रकार की इकाई सैल केवल विषमलंबाक्ष तथा एकनताक्ष तंत्रों में ही मिलते हैं|

दिक् जालक या क्रिस्टल जालक व इकाई सैल या एकक कोष्ठिका (Space lattice and unit cell)

दिक् जालक या क्रिस्टल जालक व इकाई सैल या एकक कोष्ठिका  
(Space lattice and unit cell)

[A] दिक् जालक(Space lattice)-

क्रिस्टल में संरचनात्मक इकाईयों या घटक कणों (परमाणु, अणु या आयन) की त्रिविम व्यवस्था को दिक् जालक या क्रिस्टल जालक या केवल जालक कहा जाता है|
           क्रिस्टल जालक में संरचनात्मक इकाइयों को बिंदु के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है| इन बिंदुओं को जालक बिंदु (lattice point) या जालक स्थल (lattice site) कहते हैं| 
      एक आदर्श दिक् जालक के मुख्य लक्षण निम्न हैं -
(1) दिक् जालक में प्रत्येक बिंदु क्रिस्टल के घटक कणों की स्थिति को व्यक्त करता है|
(2) दिक् जालक में उपस्थित प्रत्येक बिंदु का परिवेश जालक में उपस्थित किसी अन्य बिंदु के परिवेश के समान होता है|
(3) संपूर्ण दिक् जालक वास्तव में जालक बिंदुओं के एक छोटे त्रिविम समूह की पुनरावृति द्वारा प्राप्त एक त्रिविम संरचना है| इस छोटे समूह को इकाई सैल कहा जाता है|
[B] इकाई सैल या एकक कोष्ठिका  
(Unit cell)-
इकाई सैल क्रिस्टल का वह सूक्ष्मतम जालक बिंदुओं का त्रिआयामी समूह है जिसकी त्रिआयाम में पुनरावृति करने पर क्रिस्टल का संपूर्ण जालक प्राप्त होता है|
           अतः इकाई सेल किसी क्रिस्टल की सबसे छोटी लाक्षणिक इकाई है|

 इकाई सेल के पैरामीटर-
इकाई सेल के मुख्य पैरामीटर निम्न हैं- (a) तीनों अक्षों के अनुतटीय तीनों किनारों की आपेक्षिक लंबाईयाँ a, b तथा c अर्थात अक्षीय दूरियां 
(b) किनारों के युग्म (b,c), (c,a) तथा (a,b) के मध्य अक्षीय कोण क्रमशः अल्फा, बीटा तथा गामा |
इकाई सेल के प्रकार-
विभिन्न प्रकार के क्रिस्टलों में उपस्थित इकाई सैल निम्न चार प्रकार के होते हैं-
(1) मौलिक सैल (primitive or basic cell)
(2) फलक केंद्रित इकाई सैल (face centred unit cell)
(3) अन्तः केंद्रित इकाई सैल (body centred unit cell)
(4) किनारा केंद्रित या अन्तःकेंद्रित इकाई सैल (side centred or end centred unit cell)

Sunday, January 10, 2021

क्रिस्टलीय ठोसों का वर्गीकरण(Classification of crystalline solids)

क्रिस्टलीय ठोसों का वर्गीकरण (Classification of crystalline solids)

क्रिस्टलीय ठोसों को निम्नलिखित श्रेणियों में बांटा जा सकता है-
(1) आणविक ठोस (Molecular solids)
(2) आयनिक ठोस (Ionic solids)
(3) सहसंयोजी ठोस (Covalent solids)
(4) धात्विक ठोस ( Metallic solids)

(1) आणविक ठोस (Molecular solids)-
इनके क्रिस्टल आणविक क्रिस्टल प्रकार के होते हैं| इनमें अणु संरचनात्मक इकाई के रूप में होते हैं अर्थात त्रिआयामी जालक में अणु व्यवस्थित होते हैं| इनमें अणु दुर्बल वान्डर वाल्स बल द्वारा बंधे होते हैं| आणविक ठोस प्रायः मृदु, कम गलनांक वाले, वाष्पशील, ऊष्मा तथा विद्युत के कुचालक, कम गलन ऊष्मा वाले होते हैं|
 जैसे- शुष्क बर्फ (ठोस CO2), बर्फ, ठोस मिथेन, आयोडीन, आर्गन आदि|

आण्विक ठोस भी निम्न प्रकार के होते हैं -
(A)ध्रुवीय 
ex- HCl, SO2
(B) अध्रुवीय 
ex- Ar, I2, CO2
(C) H-बंधित 
ex- H2O

(2) आयनिक ठोस (Ionic solids)-
इनके क्रिस्टल आयनिक क्रिस्टल प्रकार के होते हैं| इनमें आयन संरचनात्मक इकाई के रूप में होते हैं अर्थात त्रिआयामी जालक में धन एवं ऋण आवेश वाले आयन व्यवस्थित होते हैं| इनमें आयन प्रबल विद्युत स्थैतिक बल द्वारा बंधे होते हैं| आयनिक ठोस प्रायः कठोर, उच्च  गलनांक वाले, ऊष्मा तथा विद्युत के दुर्बल चालक, अत्यधिक गलन ऊष्मा वाले होते हैं|
 जैसे- NaCl, KCl, ZnS, BaSO4 आदि 

(3) सहसंयोजी ठोस (Covalent solids)-
इनके क्रिस्टल सहसंयोजी क्रिस्टल प्रकार के होते हैं| इनमें एक या अधिक प्रकार के परमाणु संरचनात्मक इकाई के रूप में होते हैं अर्थात त्रिआयामी जालक में परमाणु सहसंयोजी बंध द्वारा व्यवस्थित होते हैं| इनमें परमाणु प्रबल संयोजकता बंध द्वारा बंधे होते हैं| सहसंयोजी ठोस प्रायः कठोर, उच्च  गलनांक वाले, ऊष्मा तथा विद्युत के दुर्बल चालक, अत्यधिक गलन ऊष्मा वाले होते हैं|
 जैसे- डायमंड, क्वार्ट्ज, सिलिकॉन आदि 
(4) धात्विक ठोस ( Metallic solids)-
इनके क्रिस्टल धात्विक क्रिस्टल प्रकार के होते हैं| इनमें गतिशील इलेक्ट्रानो के सागर में स्थित धनात्मक आयन संरचनात्मक इकाई के रूप में होते हैं| इनमें इलेक्ट्रान व धनात्मक आयन विद्युत आकर्षण बल द्वारा बंधे होते हैं| धात्विक  ठोस अत्यंत मृदु से अत्यंत कठोर, प्रायः अधिक गलनांक वाले, ऊष्मा तथा विद्युत के सुचालक, मध्यम गलन ऊष्मा वाले, तन्य, आघातवर्धनीय, धात्विक चमक वाले होते हैं|
 जैसे- सभी धातुएं ;  जैसे -  सोना, चाँदी,   लोहा, कॉपर आदि 



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ठोस अवस्था व ठोसों का सामान्य वर्गीकरण( The solid state and general classification of solids)

ठोस अवस्था व ठोसों का सामान्य वर्गीकरण
( The solid state and general classification of solids)

ठोस अवस्था-
( The solid state)-
पदार्थ की वह अवस्था जिसका आयतन व आकार दोनों निश्चित होता है उसे ठोस अवस्था कहा जाता है|
                       या 
ठोस अवस्था पदार्थ की व्यवस्था है जिसमें घटक कण (अणु, परमाणु या आयन) जालक में संवृत संकुलित होते हैं तथा गति करने में असमर्थ रहते हैं| ये कण केवल अपने अक्ष पर कंपन कर सकते हैं|
जैसे - NaCl, डायमंड, गोल्ड आदि 

 ठोसों का सामान्य वर्गीकरण-
(General classification of solids)-
ठोसों को मुख्यतः दो श्रेणियों में बांटा गया है -
(1) क्रिस्टलीय ठोस ( Crystalline solids)
(2) अक्रिस्टलीय ठोस ( Amorphous solids)
(1) क्रिस्टलीय ठोस ( Crystalline solids)-
क्रिस्टलीय ठोस में संरचनात्मक इकाई (अणु, परमाणु या आयन) एक निश्चित प्रकार से व्यवस्थित रहते हैं| इस निश्चित प्रकार की इकाई की लगातार पुनरावृत्ति होती है| इन ठोसों के ज्यामितीय अभिविन्यास निश्चित होते हैं| क्रिस्टलीय ठोसों का गलनांक तीक्ष्ण होता है| क्रिस्टलीय ठोसों की संगलन ऊष्मा निश्चित होती है| इनके फलकों के मध्य निश्चित कोण होते हैं| क्रिस्टलीय ठोस विषमदैशिक(anisotropic) प्रकृति के होते हैं अर्थात विभिन्न दिशाओं में इनके भौतिक गुणों के मान भिन्न-भिन्न होते हैं| क्रिस्टलीय ठोस में एक निश्चित प्रकार की संरचनात्मक इकाई की पुनरावृत्ति होती है| यह संरचनात्मक इकाई क्रिस्टल के त्रिआयामी जालक में फैली रहती हैं| इसलिए क्रिस्टलीय ठोस दीर्घ परास व्यवस्था वाले ठोस कहे जाते हैं| 
        NaCl क्रिस्टल में घटक इकाइयां Na+ तथा Cl- होती हैं| क्रिस्टल में ये एकांतर स्थलों पर स्थित रहती हैं| त्रिआयामी संरचना के कारण प्रत्येक Na+ आयन 6 Cl - आयनों द्वारा घिरा रहता है तथा प्रत्येक Cl- आयन 6 Na+ आयनों के द्वारा घिरा रहता है|
क्रिस्टलीय ठोसों के गुण-
इनके कुछ महत्वपूर्ण गुण निम्न हैं -
(1) दीर्घ परास व्यवस्था-
इन ठोसों में घटक कणों की आवर्ती क्रमिक व्यवस्था होती है|  इनमें घटक कणों की एक व्यवस्था होती है जो अधिक नियमित होती है| यही कारण है कि क्रिस्टलीय ठोस में एक दीर्घ परास व्यवस्था मानी जाती है|
(2) ज्यामितीय विन्यास-
घटक कणों के नियमित वितरण के कारण क्रिस्टलीय ठोसों में निश्चित और लाक्षणिक ज्यामितीय विन्यास पाया जाता है|
(3) गलनांक-
इन ठोसों के गलनांक सुनिश्चित होते हैं|
(4) उष्मा का प्रभाव-
गर्म किए जाने पर यह किसी विशेष ताप  पर ही पिघलते हैं |
(5) गलन उष्माएँ-
क्रिस्टलीय ठोसों की गलन उष्मायें निश्चित और लाक्षणिक होती हैं|
(6) चाकू से काटना-
 चाकू से काटने पर ये प्रायः नियमित रूप से कटते हैं|
(7) प्रकृति-
यह ठोस वास्तविक ठोस होते हैं| 

(2) अक्रिस्टलीय ठोस ( Amorphous solids)-
अक्रिस्टलीय ठोसों में संरचनात्मक इकाईयाँ एक निश्चित व्यवस्था के अंतर्गत व्यवस्थित नहीं होती हैं| इस कारण इस प्रकार के ठोसों की ज्यामितीय आकृति निश्चित नहीं होती है| अक्रिस्टलीय ठोस में एक निश्चित व्यवस्था भी हो सकती है लेकिन यह व्यवस्था बहुत अधिक नियमानुसार नहीं होती है तथा यह कुछ दूरी तक ही फैली मिलती हैं| इससे अधिक दूरी पर अव्यवस्थित क्रम मिलता है| इस प्रकार अक्रिस्टलीय ठोसों में लघु परास व्यवस्था पाई जाती है|  कांच, मोम, रबर, स्टार्च, प्लास्टिक इत्यादि अक्रिस्टलीय ठोसों के उदाहरण हैं|
       अक्रिस्टलीय ठोसों के गलनांक बहुत तीक्ष्ण नहीं होते हैं| अधिक ताप पर यह गलित अवस्था में परिवर्तित हो जाते हैं| इस प्रकार के ठोसों की संगलन ऊष्मा निश्चित नहीं होती है|
       चाकू के द्वारा काटे जाने पर यह नियमित काट प्रदर्शित नहीं करते हैं|अक्रिस्टलीय ठोस प्रकृति में समदैशिक (isotropic ) होते हैं अर्थात सभी दिशाओं में किसी भी गुण के लिए ये  समान मान प्रदर्शित करते हैं| अक्रिस्टलीय ठोसों को अतिशीतलित द्रव ( Super cooled liquid) कहा जाता है क्योंकि इनमें संरचनात्मक इकाई की व्यवस्था द्रव के समान मिलती है| विभिन्न अक्रिस्टलीय ठोसों; जैसे- कांच कुछ सीमा तक द्रव के समान बह सकते हैं| पुराने मकानों की खिड़कियों पर लगे कांच नीचे की ओर मोटे तथा ऊपर की ओर पतले हो जाते हैं क्योंकि गुरुत्व के प्रभाव में खिड़की का कांच धीरे-धीरे नीचे की ओर बहने लगता है जिससे कांच नीचे की ओर अपेक्षाकृत मोटा हो जाता है|

अक्रिस्टलीय ठोसों के गुण-
इनके कुछ महत्वपूर्ण गुण निम्न हैं -
(1) लघु परास व्यवस्था-
इन ठोसों में घटक कणों की आवर्ती क्रमिक व्यवस्था का अभाव होता है| लेकिन फिर भी इनके घटक कणों की एक व्यवस्था हो सकती है जो अधिक नियमित नहीं होती है| यही कारण है कि अक्रिस्टलीय ठोस में एक लघु परास व्यवस्था मानी जाती है|
(2) ज्यामितीय विन्यास-
घटक कणों के अनियमित वितरण के कारण अक्रिस्टलीय ठोसों में न तो निश्चित और ना ही लाक्षणिक ज्यामितीय विन्यास पाया जाता है|
(3) गलनांक-
इन ठोसों के गलनांक सुनिश्चित नहीं होते हैं ये प्रायः एक परास में पिघलते हैं| जैसे- कांच को गर्म करने पर यह मृदु होता है और उसके बाद एक ताप परास में पिघलता है|
(4) उष्मा का प्रभाव-
सामान्य दशा में अक्रिस्टलीय ठोस अपने अक्रिस्टलीय रूप को बनाए रखते हैं| लेकिन गर्म किए जाने पर यह किसी विशेष ताप  पर क्रिस्टलीय रूप ग्रहण कर लेते हैं| प्राचीन इमारतों से प्राप्त कांच की वस्तुएं प्रायः रंगहीन होने के स्थान पर दूधिया दिखाई देती हैं| यह उनमें उपस्थित कांच के आंशिक क्रिस्टलीकरण के कारण होता है|
(5) गलन उष्माएँ-
क्रिस्टलीय ठोसों के विपरीत अक्रिस्टलीय ठोसों की गलन उष्मायें न तो निश्चित और न ही लाक्षणिक होती हैं|
(6) चाकू से काटना-
 इन ठोसों को निश्चित तलों के अनुतटीय नहीं काटा जा सकता| चाकू से काटने पर वे प्रायः अनियमित रूप से कटते हैं|
(7) प्रकृति-
यह ठोस वास्तविक ठोस नहीं होते हैं| इन्हें अतिशीतलित द्रव या छद्म ठोस माना जाता है|

Monday, January 4, 2021

प्रथम कोटि की अभिक्रिया ( First order of reaction )

प्रथम कोटि की अभिक्रिया (First order of reaction )


प्रथम कोटि की अभिक्रियायें -
(First order of reaction )
ऐसी अभिक्रियाएं जिनमें अभिक्रिया के वेग का मान अभिकारक के सांद्रण के 1 घात पर निर्भर करता है, प्रथम कोटि की अभिक्रियायें कहलाती हैं|
अभिक्रिया A -----> product प्रथम कोटि की अभिक्रिया होगी, यदि इसके लिए वेग नियम निम्न है-
Rate = k[A]1 = k[A]

प्रथम कोटि की अभिक्रियाओं के कुछ मुख्य उदाहरण निम्न हैं -
(1) C2H5Cl ------------> C2H4 + HCl 
प्रायोगिक वेग नियम-
Rate = k [C2H5Cl]
अभिक्रिया की कोटि = 1
(2) NH4NO2 -------> N2 + 2H2O 
प्रायोगिक वेग नियम-
Rate = k [NH4NO2]
अभिक्रिया की कोटि = 1
प्रथम कोटि अभिक्रिया के लिए वेग स्थिरांक के मात्रक-
प्रथम कोटि की अभिक्रिया के लिए,
Rate = k[A] 
 k = Rate/[A]
    = molL-1s-1 / molL-1
    = s-1
 अतः प्रथम कोटि की अभिक्रिया के वेग स्थिरांक का मात्रक s-1होता है|

प्रथम कोटि की अभिक्रिया के लिए वेग  समीकरण या समाकलित वेग समीकरण-
माना कि निम्न अभिक्रिया प्रथम कोटि की है-
                    A -------> product 
t=0              a              0
t=t             a-x             x 
द्रव्य अनुपाती क्रिया के नियम से-
Rate = k[A]1 
r = k(a-x)    -------(1)
बलगतिकी के नियमानुसार-
r = dx/dt   -------(2)
समीकरण 1 व 2 से 
 dx/dt = k(a-x)    
dx/(a-x) = kdt 
समाकलन करने पर
     ✓dx/(a-x) = k✓dt 
loge1/(a-x) = kt + C 
क्योंकि, loge1/x = -logex 
  -logex  = kt + C  ------(3)
प्रारंभिक समय में 
t = 0,    x  = 0
यह मान समीकरण 3 में रखने पर 
-loge(a-0)  = k×0 + C
-loge a  =  C
C का मान समीकरण 3 में रखने पर 
-loge(a-x)  = kt - logea
 logea - loge(a-x) = kt
k= 1/t logea - loge(a-x) 
क्योंकि, logx - logy = log x/y 
k= 1/t loge a/(a-x)
क्योंकि, loge = 2.303log10
k= 2.303/t log10 a/(a-x)
अर्द्ध-आयु काल -
किसी अभिक्रिया के आधे भाग के पूर्ण होने में लगने वाले समय अर्थात किसी अभिक्रिया में अभिकारकों की प्रारंभिक मात्रा के आधे भाग के क्रिया करने में लगने वाले समय को उस अभिक्रिया की अर्द्ध-आयु कहा जाता है|
इसे t1/2 से प्रदर्शित करते हैं |
अतः प्रथम कोटि अभिक्रिया के लिए -
t = t1/2
a=a 
(a-x) = a/2
क्योंकि, 
k= 2.303/t log10 a/(a-x)
k= 2.303/t1/2  log10 a/(a/2)
k= 2.303/t1/2 log10 (2)
क्योंकि,  log10(2) = 0. 3010
k = (2. 303 × 0. 3010) / t1/2
k = 0. 693/t1/2

Sunday, January 3, 2021

शून्य कोटि की अभिक्रिया (Zero order reaction )


शून्य कोटि की अभिक्रियायें -
(Zero order reaction )
ऐसी अभिक्रियाएं जिनमें अभिक्रिया के वेग का मान किसी भी अभिकारक के सांद्रण पर निर्भर नहीं करता है तथा यह मान पूरी अभिक्रिया के समय स्थिर रहता है शून्य कोटि की अभिक्रियायें कहलाती हैं|
अभिक्रिया A -----> product शून्य कोटि की अभिक्रिया होगी, यदि इसके लिए वेग नियम निम्न है-
Rate = k[A]0 = k 

शून्य कोटि की अभिक्रियाओं के कुछ मुख्य उदाहरण निम्न हैं -
(a) जल की सतह पर H2 तथा Cl2 का प्रकाश रासायनिक संयोग-
                  प्रकाश 
H2 + Cl2 ------------> 2HCl 
प्रायोगिक वेग नियम-
Rate = k [H2]0 [Cl2]0 = k
अभिक्रिया की कोटि = 0
(b) गोल्ड या प्लैटिनम की सतह पर NH3 का विघटन-
2NH3 ------------> N2 + 3H2
प्रायोगिक वेग नियम-
Rate = k [2NH3]0 = k
अभिक्रिया की कोटि = 0
शून्य कोटि अभिक्रिया के लिए वेग स्थिरांक के मात्रक-
शून्य कोटि की अभिक्रिया के लिए,
Rate = k[A]0 = k 
         = molL-1s-1
 अतः शून्य कोटि की अभिक्रिया के वेग स्थिरांक का मात्रक molL-1s-1होता है|

शून्य कोटि की अभिक्रिया के लिए वेग  समीकरण या समाकलित वेग समीकरण-
माना कि निम्न अभिक्रिया शून्य कोटि की है-
                    A -------> product 
t=0              a              0
t=t             a-x             x 
द्रव्य अनुपाती क्रिया के नियम से-
Rate = k[A]0 
r = k      -------(1)
बलगतिकी के नियमानुसार-
r = dx/dt   -------(2)
समीकरण 1 व 2 से 
k = dx/dt
dx = kdt 
समाकलन करने पर
     ✓dx = k✓dt 
       x = kt + C  ------(3)
प्रारंभिक समय में 
t = 0,    x  = 0
यह मान समीकरण 3 में रखने पर 
C = 0
C का मान समीकरण 3 में रखने पर 
x = kt + 0
x = kt 
 या, 
k = x/t
 
अर्द्ध-आयु काल -
किसी अभिक्रिया के आधे भाग के पूर्ण होने में लगने वाले समय अर्थात किसी अभिक्रिया में अभिकारकों की प्रारंभिक मात्रा के आधे भाग के क्रिया करने में लगने वाले समय को उस अभिक्रिया की अर्द्ध-आयु कहा जाता है|
इसे t1/2 से प्रदर्शित करते हैं |
अतः शून्य कोटि अभिक्रिया के लिए -
t = t1/2
x = a/2
क्योंकि k = x/t
या,  k = a/2 ÷ t1/2
अतः t1/2 = a/2k






अभिक्रिया की कोटि (Order of a reaction)

अभिक्रिया की कोटि 
(Order of a reaction)-
किसी अभिक्रिया के वेग नियम में निहित किसी अभिकारक विशेष के सांद्रण की घात को उस अभिकारक के सापेक्ष अभिक्रिया की कोटि कहा जाता है तथा वेग नियम में निहित सभी अभिकारकों के सांद्रणों की घातों के योग को अभिक्रिया की कुल कोटि कहा जाता है|
 जैसे, माना कि एक सामान्य अभिक्रिया
aA + bB + cC ----> product 
 के प्रायोगिक रूप से प्राप्त वेग नियम को निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
Rate = k [A]p [B]q [C]r  
 इस वेग नियम में पद p अभिकारक A के सापेक्ष अभिक्रिया की कोटि को व्यक्त करता है| इसी प्रकार q तथा r क्रमशः  अभिकारको B तथा C के सापेक्ष अभिक्रिया की कोटि को व्यक्त करते हैं|
 अतः, 
अभिक्रिया की कुल कोटि = p+q+r 
 इस अभिक्रिया को A के सापेक्ष p कोटि, B के सापेक्ष q कोटि तथा C के सापेक्ष r कोटि की अभिक्रिया कहा जाएगा तथा अभिक्रिया की कुल कोटि p+q+r होगी |

जब किसी अभिक्रिया के लिए कोटि का मान 1 होता है तो उसे प्रथम कोटि की अभिक्रिया कहा जाता है| यदि कोटि का मान 2 है तो इसे द्वितीय कोटि की अभिक्रिया कहते हैं| इसी प्रकार कोटि का मान 3 होने पर वह तृतीय कोटि की अभिक्रिया कहलाती है |
👉 अभिक्रिया की कोटि पूरी तरह से एक प्रायोगिक मान है इसे अभिक्रिया की संतुलित समीकरण में निहित अभिकारकों की स्टॉयशियोमीट्रिक मानों द्वारा ज्ञात नहीं किया जा सकता है|
👉 अभिक्रिया की कोटि प्रायः पूर्णांक होती है| लेकिन इसका मान 0 तथा प्रभाज में भी हो सकता है| 
जैसे-
 निम्न अभिक्रिया 
2NO + O2 ---> 2NO2
का प्रयोग से प्राप्त वेग नियम निम्न है-
Rate = k [NO]2 [O2]1
 अभिक्रिया की कुल कोटि = 2+1=3 
अतः यह तृतीय कोटि की अभिक्रिया है|
Question -
अभिक्रिया A+2B ---->C  निम्न वेग नियम का पालन करती है-
Rate = k [A]1/2 [B]3/2
 इस अभिक्रिया की कोटि क्या है?
Solution -
इस अभिक्रिया के लिए वेग नियम निम्न है-
Rate = k [A]1/2 [B]3/2
A के सापेक्ष अभिक्रिया की कोटि= 1/2 
बी के सापेक्ष अभिक्रिया की कोटि= 3/2 अभिक्रिया की कुल कोटि = 1/2 + 3/2 
                                   = 2 




Saturday, January 2, 2021

अभिक्रिया की आणविकता (Molecularity of a reaction)

अभिक्रिया की आणविकता (Molecularity of a reaction)
 एक रासायनिक अभिक्रिया को संपन्न करने के लिए उन क्रियाकारी स्पीशीज (परमाणु, अणु या आयन) की संख्या जिनका एक साथ टकराना आवश्यक है, अभिक्रिया की आणविकता कहलाती है|
          अभिक्रिया की आणविकता पूर्णांक होती है तथा इसका मान 1, 2, 3 इत्यादि हो सकता है|

👉 एक आणविक अभिक्रियाएं (Unimolecular reactions)-
जब किसी अभिक्रिया में क्रियाकारी पदार्थ का केवल एक अणु भाग लेता है तो उस अभिक्रिया की आणविकता एक होती है|
 जैसे-
   NH4NO2 ---> N2 + 2H2O 

👉 द्वि-आणविक अभिक्रियाएं (Bimolecular reactions)-
जब अभिकारकों के दो अणु आपस में टकरा कर रासायनिक परिवर्तन उत्पन्न करते हैं तो अभिक्रिया की आणविकता दो होती है|
 जैसे-
 2HI ---> H2 + I2
2N2O5 ---> 2N2O4 + O2

👉 त्रि-आणविक अभिक्रियाएं (Trimolecular reactions)-
जब अभिकारकों के तीन अणु आपस में टकरा कर रासायनिक परिवर्तन उत्पन्न करते हैं तो अभिक्रिया की आणविकता तीन होती है|
 जैसे-
 2NO + Cl2 ---> 2NOCl 
2NO + O2 ---> 2NO2

तीन से अधिक आणविकता वाली अभिक्रियाएं दुर्लभ हैं क्योंकि तीन से अधिक अणुओं के एक साथ टकराने की संभावना अत्यंत कम होती है|

छद्म एकआणविक अभिक्रियाएं (Pseudo-Unimolecular reactions)-
वे प्रथम कोटि अभिक्रियायें,  जिनकी आणविकता एक से अधिक होती है, छद्म एकआणविक अभिक्रियाएं कहलाती हैं|
जैसे -
CH3COOC2H5 + H2O ----> CH3COOH + C2H5OH

C12H22O11 + H2O ----> C6H12O6 + C6H12O6 
उपरोक्त दोनों अभिक्रियाओं में अभिक्रिया का वेग जल पर निर्भर नहीं करता है| इसलिए यह प्रथम कोटि की अभिक्रिया है, परंतु इसकी आणविकता 2 है|

मौलिक अभिक्रियाओं की आणविकता-
 वे साधारण अभिक्रियाएं जो केवल एक पद में पूर्ण होती हैं, मौलिक अभिक्रियाएं कही जाती हैं| इन अभिक्रियाओं में भाग लेने वाले अणुओं की संख्या उसकी आणविकता को व्यक्त करती है| 
           मौलिक अभिक्रियाओं की आणविकता अभिक्रिया के संतुलित समीकरण द्वारा व्यक्त किए गए अभिकारक परमाणु, आयन या अणुओं की संख्या के बराबर मानी जाती है|
 जैसे-
NH4NO2 ---> N2 + 2H2O (आणविकता =1)
2HI ---> H2 + I2 (आणविकता =2)
2NO + Cl2 ---> 2NOCl (आणविकता =3)

जटिल अभिक्रियाओं की आणविकता-
वे अभिक्रियाएं जो दो या अधिक पदों में पूर्ण होती हैं उन्हें जटिल अभिक्रियाएं कहा जाता है| जटिल अभिक्रियाओं की आणविकता संतुलित अभिक्रिया की स्टॉयशियोमिटरी द्वारा ज्ञात नहीं की जा सकती है क्योंकि इस प्रकार की अभिक्रियाओं को संतुलित समीकरणों में काफी अधिक संख्या में अभिकारक अणु हो सकते हैं|
 जैसे-
2FeCl3 + 6KI ---> 2FeI2 + 6KCl + I2

2KMnO4 + 16HCl ----> 2KCl + 2MnCl2 + 5Cl2 + 8H2O 
इन अभिक्रियाओं को देखने से यह लगता है कि इनकी आणविकता बहुत अधिक है, परंतु ऐसा नहीं होता है| जटिल अभिक्रियाओं की आणविकता ज्ञात करने में यह माना जाता है कि यह अभिक्रियाएं कई पदों में पूर्ण होती हैं| प्रत्येक पद में एक, दो या अधिक से अधिक तीन अणु भाग लेते हैं|
      किसी जटिल अभिक्रिया के सबसे मंद पद (वेग निर्धारित करने वाला पद) में भाग लेने वाले अभिकारक अणुओं या परमाणुओं की संख्या को जटिल अभिक्रिया की आणविकता कहा जाता है जैसे-
2NO + 2H2 ---> N2 + 2H2O 
यह माना जाता है कि यह अभिक्रिया निम्न 2 पदों में पूर्ण होती है-
पद 1-
2NO + H2 ---> N2 + H2O2 (मंद)
पद 2-
H2O2 + H2 ---> 2H2O (तीव्र)
 क्योंकि पद 1 मंद है अतः यह वेग निर्धारित करने वाला पद है| पद 1 में अभिकारकों के अणुओं की संख्या 3 है| अतः सबसे मंद मौलिक पद की आणविकता 3 है| इसे संपूर्ण अभिक्रिया की आणविकता माना जा सकता है|