Advance Chemistry

Tuesday, December 15, 2020

वैद्युत रसायन तथा विद्युत रासायनिक सेल (Electrochemistry and electrochemical cell)

वैद्युत रसायन तथा विद्युत रासायनिक सेल (Electrochemistry and electrochemical cell)

वैद्युत रसायन (Electrochemistry)-
रसायन विज्ञान की वह शाखा जिसमें रासायनिक ऊर्जा तथा विद्युत ऊर्जा के परस्पर रूपांतरण तथा उनके मध्य संबंध का अध्ययन किया जाता है विद्युत रसायन कहलाती है|
विद्युत रासायनिक सेल -(Electrochemical cell)-
जब समान या विभिन्न प्रकार के विद्युत अपघट्यों के विलयनों में डूबे दो इलेक्ट्रोड रासायनिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में या विद्युत ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करने में सक्षम होते हैं तो तंत्र को एक विद्युत रासायनिक सेल कहा जाता है|
 विद्युत रासायनिक सेल निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं-
(1) विद्युत अपघटनी सेल(Electrolytic cell) -
जो सेल विद्युत ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं, उन्हें विद्युत अपघटनी सेल कहा जाता है| 
        इस प्रकार के सेलों में एक बाह्य स्रोत से एक विद्युत अपघट्य विलयन में विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है, जो एक रासायनिक अभिक्रिया को जन्म देती है|
            विद्युत लेपन, धातुओं के विद्युत शुद्धीकरण आदि में प्रयुक्त सेल इस प्रकार के सेल हैं|


(2) गैल्वेनिक सेल(Galvanic cell)-
जो सेल रासायनिक ऊर्जा को विद्युत् ऊर्जा में बदलते हैं,  उन्हें गैल्वेनिक सेल कहा जाता है|
     इस प्रकार के सेलों में एक रासायनिक अभिक्रिया के फलस्वरूप विद्युत् ऊर्जा की उत्पत्ति होती है |
       शुष्क सेल, डेनियल सेल, लेक्लांशे सेल आदि इस प्रकार के सेल हैं|

Monday, December 14, 2020

क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत (Crystal field theory, CFT )

क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत (Crystal field theory, CFT )
क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत का प्रतिपादन बैदे ने 1929 में आयनिक क्रिस्टलों की बंध प्रकृति की व्याख्या हेतु किया था|
        क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत के अनुसार धातु आयन तथा लिगेंड के मध्य पारस्परिक क्रिया पूर्ण रूप से वैद्युतस्थैतिक (आयनिक) होती है| जब लीगैंड केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के संपर्क में आता है तो केंद्रीय धातु परमाणु के पांच अपभ्रस्ट(degenerate) d-ऑर्बिटल (समान ऊर्जा वाले d-ऑर्बिटल) विपाटित(splitted) हो जाते हैं, अर्थात ये लिगेंड के वैद्युत स्थैतिक क्षेत्र के प्रभाव के कारण विभिन्न ऊर्जा स्तरों में बँट जाते हैं|  इस प्रकार d-ऑर्बिटलों की अपभ्रस्टता  खत्म हो जाती है तथा वे दो समूहों में, जिन्हें t2g (dxy, dyz, dzx ) तथा eg ( dx2-y2, dz2 ) समूह कहते हैं, पृथक हो जाते हैं|  यह विपाटन संकर की ज्यामिति पर निर्भर करता है| विपाटित d-ऑर्बिटल के इन दो समूहों के बीच ऊर्जा अंतराल को प्रायः 10 Dq या ∆  से प्रदर्शित करते हैं|  लिगेंड के प्रतिकर्षण के कारण धातु आयन के इलेक्ट्रॉन उन d- ऑर्बिटलों में प्रवेश करते हैं जिनकी पाली लीगैंड की दिशा से अधिकतम दूरी पर स्थित होती हैं| d- ऑर्बिटलों में इलेक्ट्रानों का प्रवेश हुण्ड के नियम से होता है |

अष्टफलकीय संकर यौगिक -

चतुष्फलकीय संकर यौगिक -


Sunday, December 13, 2020

उप-सहसंयोजन यौगिकों में आबंधन (Bonding in Co-ordination compounds)

उप-सहसंयोजन यौगिकों में आबंधन
(Bonding in Co-ordination compounds)

(A) संयोजकता आबंध सिद्धांत -(Valence bond theory, VBT)-
इस सिद्धांत का प्रतिपादन लाइनस पॉलिंग ने किया था| अतः इसे पॉलिंग का सिद्धांत भी कहते हैं| इस सिद्धांत की मुख्य अवधारणाएं निम्न है-
(1) केंद्रीय धातु परमाणु या आयन में कई रिक्त ऑर्बिटल उपस्थित होते हैं जिनमें लिगेंड द्वारा दिए गए इलेक्ट्रॉन समावेशित होते हैं| प्रत्येक मोनोडेंटेड लीगैंड केंद्रीय धातु परमाणु या आयन को इलेक्ट्रॉनों का एक युग्म दान करता है|
(2) केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के रिक्त परमाण्विक ऑर्बिटल आवश्यकतानुसार संकरण में भाग लेते हैं|
(3) जब लिगेंड केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के संपर्क में आता है तो केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के रिक्त संकरित ऑर्बिटल लीगेंड के इलेक्ट्रॉनों के एकाकी युग्म युक्त ऑर्बिटलों के साथ अतिव्यापन करते हैं तथा प्रबल लिगेंड धातु उप-सहसंयोजक बंधों का निर्माण करते हैं|
(4) संकर निर्माण प्रक्रिया में हुंड के अधिकतम बहुलता के नियम का पालन किया जाता है| परंतु प्रबल लिगेंड के प्रभाव के कारण इलेक्ट्रॉन हुंड के नियम के विरुद्ध युग्मित हो सकते हैं|
(5)  केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के अनाबंधी इलेक्ट्रॉन अप्रभावित रहते हैं तथा रासायनिक बंध निर्माण में भाग नहीं लेते हैं|
(6) यदि किसी संकर में एक या अधिक अयुग्मित इलेक्ट्रॉन उपस्थित हो तो वह संकर अनुचुंबकीय प्रकृति का होता है| यदि संकर में उपस्थित सभी इलेक्ट्रॉन युग्मित हैं तो संकर की प्रकृति प्रतिचुंबकीय होती है|

संयोजकता आबंध सिद्धांत के आधार पर कुछ उप-सहसंयोजन यौगिकों की संरचना तथा आकृति-

(1) अष्टफलकीय संकर-
अष्टफलकीय संकरों का निर्माण d2sp3 या sp3d2 संकरण द्वारा होता है|
जैसे- 
हैक्सासायनोफेरेट(||) आयन, [Fe(CN)6]4-
इस संकर में आयरन की ऑक्सीकरण अवस्था +2 है| अतः इस अवस्था में Fe2+ के सभी 3d ऑर्बिटल भरे हुए हैं| CN´ आयन प्रबल लीगेंड है| जब 6 CN´ लीगेंड Fe2+ के निकट आते हैं तो 3d  इलेक्ट्रॉन हुंड के अधिकतम बहुलता सिद्धांत के विरुद्ध युग्मित होने लगते हैं| अतः दो 3d  ऑर्बिटल रिक्त हो जाते हैं| 6 CN´ लिगेंड प्रदान किए गए 12 इलेक्ट्रॉनों को समावेशित करने के लिए केंद्रीय Fe2+ आयन के पास 6 रिक्त परमाण्विक ऑर्बिटलों  की आवश्यकता होती है| अतः Fe2+ के दो 3d, एक 4s तथा तीन 4p  ऑर्बिटल मिलकर d2sp3 संकरण करते हैं और CN- द्वारा दिए गए 12 इलेक्ट्रॉनों को समावेशित कर लेते हैं|
(2) चतुष्फलकीय संकर-
ये संकर sp3 संकरण द्वारा बनते हैं|
जैसे -
निकिल कार्बोनिल, [Ni(CO)4]
इस संकर में निकिल की ऑक्सीकरण अवस्था 0 है| प्रबल CO लीगैंडो की उपस्थिति में इलेक्ट्रॉन 4s इलेक्ट्रान 3d ऑर्बिटल में प्रवेश करने के लिए बाध्य हो जाते हैं| जिसके कारण sp3 संकरण हो पाता है|
(3) वर्गसमतलीय संकर-
वर्गसमतलीय संकर dsp2 संकरण द्वारा निर्मित होते हैं|
जैसे - टेट्रासायनाइडोनिकिलेट(||) आयन, [Ni(CN)4]2-



Wednesday, December 9, 2020

उपसहसंयोजन यौगिकों का नामकरण(Nomenclature of Co-ordination compounds)

उपसहसंयोजन यौगिकों का नामकरण(Nomenclature of Co-ordination compounds)
उपसहसंयोजन यौगिकों का नामकरण 1957 में प्रतिपादित तथा 1959 में संशोधित I.U.P.A.C. नामांकन पद्धति द्वारा किया जाता है| उपसहसंयोजन यौगिकों की I.U.P.A.C. नामांकन पद्धति निम्न प्रकार है-
 उपसहसंयोजक यौगिकों के नामकरण के नियम- 
आधुनिक I.U.P.A.C.पद्धति के अनुसार किसी उपसहसंयोजन यौगिकों के नामांकन में निम्न नियम हैं- 
(1) आयनों का नामकरण क्रम-
आयनिक संकरो में धनात्मक आयन को सबसे पहले लिखा जाता है और ऋणात्मक आयन को उसके बाद लिखते हैं| नाम का आरंभ छोटे अक्षर से होता है तथा संकर भाग को एक शब्द के रूप में लिखा जाता है| आयनिक संकरों के नाम एक शब्द के रूप में लिखे जाते हैं|
(2) लीगैंडों का नामकरण-
विभिन्न प्रकार के लीगैंडों का नामकरण निम्न है-
(a) उदासीन लीगैंड का नाम और उनकी बातें लिखते हैं| जैसे- 
CO  कार्बोनिल 
CS   थायोकार्बोनिल
NO नाइट्रोसिल 
NH2CONH2 ऐथिलिन डाई ऐमीन(en)
C5H5N पायरिडीन 
H2O एक्वा 
NH3 एमाइन 
(b) ऋणायनिक लीगैंड के नाम लिखते समय समूह के संगत नाम के साथ पश्चलग्न के रूप में -आइडो(-ido) या      -ओ(-o) लगाते हैं| जैसे-
Cl´  क्लोराइडो 
Br´  ब्रोमाइडो 
I´  आयोडाइडो 
F´  फ्लोराइडो
CN´  सायोनाइडो 
SO4´´ सल्फेटो 
CH3COO´ ऐसिटेटो 
S´´  सल्फाइडो 
CO3´´ कार्बोनेटो 
S2O3´´ थायोसल्फेटो
OH´  हाइड्रोक्साइडो 
O´´  ऑक्सो 
SCN´ थायोसायनेटो 
C2O4´´  ऑक्जेलेटो 
SO3´´ सल्फाइटो 
NH2´  ऐमीडो 
NO3´  नाइट्रेटो 
NO2´  नाइट्राईटो-N 
ONO´  नाइट्राईटो-O
(c) धनायनिक लीगैंड  संकरों में अधिक नहीं मिलतेे हैं| इनका नामकरण समूह के संगत नाम के साथ -ium पश्चलग्न  लगाकर करतेे हैं| जैसे -
NO+  नाइट्रोसोनियम 
 NO2+  नाइट्रोनियम 
NH2NH3+  हाईड्राजिनियम 

(3) एम्बीडेंट लीगैंड के जुड़ने की विधि-
कुछ मोनोडेंटेट लीगैंड में एक से अधिक दाता परमाणु उपस्थित होते हैं, जो केंद्रीय धातु परमाणु से किसी भी दाता परमाणु द्वारा जुड़ सकते हैं| ऐसे लिगेंड को एम्बीडेंट लिगेंड कहा जाता है| ऐसी स्थिति में लिगेंड का नाम दो प्रकार से लिखा जा सकता है-
(1) एम्बीडेन्ट लीगैंड के नामकरण के लिए उस परमाणु का प्रतीक लिखते हैं जिसके द्वारा लीगैंड केंद्रीय धातु परमाणु से जुड़ सकता है| जैसे-  SCN´ एक एम्बीडेंट लीगैंड है तथा यह S और N दोनों से जुड़ सकता है| अतः इसका नाम इसके जुड़ने के आधार पर थायोसायनेटो-S या थायोसायनेटो-N होगा|
 (2) एम्बीडेंट लीगैंड का विभिन्न प्रकार से जुड़ना उनको विभिन्न नाम देकर भी समझाया जा सकता है| जैसे- लीगैंड NO2´,  N के द्वारा (-NO2´ के रूप में) या O के द्वारा(-ONO´) जुड़ सकता है| क्रमशः N और O  से जुड़ने के अनुसार इसे नाइट्रो तथा नाइट्राइटो नाम भी दिए जा सकते हैं|

(4) लीगैंडों की संख्या-
(a) यदि एक ही संकर में दो या अधिक समान प्रकार की लीगैंड उपस्थित हो तो अनुलग्नों डाई, ट्राई, टेट्रा, पेंटा, हेक्सा आदि का प्रयोग उनकी संख्या बताने के लिए किया जाता है|
(b) जब पॉलिडेंटेट लीगैंड के नाम में डाई, ट्राई आदि (जैसे- एथिलीनडाईएमीन, एथिलीनडाईएमीन टेट्राएसिटेट आदि) आंकिक अनुलग्न निहित होते हैं तो लिगेंड की 2,3,4,5,6 आदि संख्याओं को प्रदर्शित करने के लिए क्रमशः बिस, ट्रिस, टेट्राकिस, पेंटाकिस, हेक्साकिस आदि का प्रयोग करते हैं|

(5) लीगैंडो के नामों का क्रम-
जब एक से अधिक लिगेंड संकर में उपस्थित होते हैं तो उनके नाम उन पर स्थित आवेश के अनुसार न होकर वर्णमाला के अक्षरों के क्रम में लिखे जाते हैं| लिगेंड का नाम एक ही शब्द के रूप में लिखा जाता है|

(6) केंद्रीय धातु आयन का नामकरण-

(a) धनायनिक तथा उदासीन संकर-
जब संकर धनायनिक या उदासीन होते हैं तो केंद्रीय धातु परमाणु या आयन को अन्य दूसरे यौगिकों में प्रयुक्त उसके साधारण नाम द्वारा ही वर्णित किया जाता है| केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के नाम के साथ उसकी ऑक्सीकरण संख्या लिखी जाती है| ऑक्सीकरण संख्या को रोमन संख्या में एक कोष्ठक के भीतर लिखते हैं|
(b) ऋणायनिक संकर-
जब संकर ऋणायनिक होता है तो केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के नाम के अंत में ऐट(-ate) पश्चलग्न का प्रयोग करते हैं तथा इसके साथ कोष्ठक में इसकी ऑक्सीकरण संख्या रोमन संख्या में लिखते हैं|
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EXAMPLE -



Sunday, December 6, 2020

उपसहसंयोजन यौगिकों का वर्नर सिद्धांत (Werner's theory of Co-ordination compounds )

उपसहसंयोजन यौगिकों का वर्नर सिद्धांत (Werner's theory of Co-ordination compounds )
एल्फ्रेड वर्नर (1892) ने संकर यौगिकों के गुणों का विस्तृत अध्ययन किया| इन यौगिकों के गुणों की व्याख्या करने के लिए वर्नर ने एक सिद्धांत दिया जिसे उप-सहसंयोजन यौगिकों का वर्नर सिद्धांत कहते हैं| इस सिद्धांत का संक्षिप्त विवरण निम्न है-
 वर्नर सिद्धांत की अवधारणाएँ-
(1) संकर में उपस्थित केंद्रीय धातु परमाणु या आयन दो प्रकार की संयोजकताओं का प्रदर्शन करता है- प्राथमिक संयोजकता तथा द्वितीयक संयोजकता|
(a) प्राथमिक संयोजकता-
 यह संयोजकता आयनन योग्य होती है तथा यह केंद्रीय धातु आयन की ऑक्सीकरण अवस्था के संगत होती है इसमें हमेशा एक ऋणात्मक आयन ही जुड़ता है| प्राथमिक संयोजकताओं को डॉट युक्त रेखाओं(----)  द्वारा प्रदर्शित किया जाता है| केंद्रीय धातु आयन से प्राथमिक संयोजकताओं द्वारा जुड़े आयन विलयन में आयनित होते हैं|
(b) द्वितीयक संयोजकता-
 इस प्रकार की संयोजकता आयनन योग्य नहीं होती है तथा केंद्रीय धातु परमाणु या आयन की उपसहसंयोजक संख्या के अनुरूप होती है| प्रत्येक केंद्रीय धातु परमाणु या आयन की द्वितीयक संयोजकताओं की संख्या निश्चित होती है| (वास्तव में यह संख्या केंद्रीय धातु आयन की उपसहसंयोजक संख्या के बराबर होती है)| द्वितीयक संयोजकताएँ ऋणात्मक या उदासीन अणुओ द्वारा संतुष्ट होती है| इन्हें सतत रेखाओं(-) द्वारा प्रदर्शित करते हैं| केंद्रीय धातु आयन से द्वितीयक संयोजकताओं द्वारा जुड़े समूह विलयन में आयनित नहीं होते हैं|
(2) केंद्रीय धातु परमाणु या आयन में सभी प्राथमिक तथा द्वितीयक संयोजकताओं को संतुष्ट करने की प्रवृत्ति होती है|
(3) द्वितीयक संयोजकताएँ दैशिक होती हैं जबकि प्राथमिक संयोजकता अदैशिक  होती है|

लीगैंडों का वर्गीकरण(Classification of ligands)

लीगैंडों का वर्गीकरण (Classification of ligands)
लीगैंड का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया जाता है-
(A) आवेश पर आधारित वर्गीकरण-
लीगैंड पर उपस्थित आवेश के आधार पर लीगैंड को निम्न प्रकार वर्गीकृत कर सकते हैं-
(1) उदासीन लीगैंड-
 ऐसे लीगैंड पर कोई आवेश नहीं होता है और यह प्रायः आणविक स्पीशीज होती हैं, जिनमें एक या एक से अधिक इलेक्ट्रॉनों की एकल युग्म उपस्थित रहते हैं|
 जैसे- H2O(एक्वा), NH3(एमाइन), CO(कार्बोनिल), C2H5N(पिरिडिन, py)

 (2) ऋणात्मक लीगैंड-
 ऐसे लीगैंड पर ऋण आवेश होता है और यह ऋणात्मक स्पीशीज होती हैं जिनमें एक या अधिक इलेक्ट्रॉनों के एकल युग्म  पाए जाते हैं|
 जैसे- F´ (फ़्लोराइडो),  Cl´(क्लोराइडो) Br´ (ब्रोमाइडो), I´(आयोडाइडो),  CN´ (सायनाइडो), OH´(हाइड्राक्साइडो) आदि 
 (3) धनात्मक लीगैंड-
धन आवेश वाले लिगेंड धनात्मक लिगेंड कहलाते हैं| यह संकर में बहुत कम पाए जाते हैं|
 जैसे- NO+ (नाइट्रोसायलियम),  NH2NH3+(हाइड्राजीनियम) आदि 

(B) दंतता के आधार पर वर्गीकरण (दाता परमाणुओं की संख्या पर आधारित वर्गीकरण)-
लीगैंड में उपस्थित दाता परमाणुओं की संख्या को लिगेंड की दंतता कहा जाता है| दंतता के आधार पर लीगैंडो को निम्न प्रकार बांटा जा सकता है-
(1) मोनोडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास केवल एक दाता परमाणु होता है और जो धातु परमाणु या आयन से केवल एक उप-सहसंयोजक बंध बनाता है उसे मोनोडेंटेट लीगैंड कहते हैं| ऐसे लीगैंड केवल एक बिंदु द्वारा ही केंद्रीय परमाणु से जुड़े होते हैं| यह उदासीन तथा ऋणात्मक दोनों हो सकते हैं|

(2) डाईडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास दो दाता परमाणु होता है और जो धातु परमाणु या आयन से दो उप-सहसंयोजक बंध बनाता है उसे डाईडेंटेट लीगैंड कहते हैं| ऐसे लीगैंड दो  बिंदु द्वारा केंद्रीय परमाणु से जुड़े होते हैं| 

(3) ट्राईडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास 3 दाता परमाणु होता है और जो धातु परमाणु या आयन से 3 उप-सहसंयोजक बंध बनाता है उसे ट्राईडेंटेट लीगैंड कहते हैं| ऐसे लीगैंड 3 बिंदु द्वारा केंद्रीय परमाणु से जुड़े होते हैं| 

(4) टेट्राडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास 4 दाता परमाणु होता है, उसे टेट्राडेंटेट लीगैंड कहते हैं| 

(5) पेंटाडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास 5 दाता परमाणु होता है, उसे पेंटाडेंटेट लीगैंड कहते हैं| 

(6) हेक्साडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास 6 दाता परमाणु होता है, उसे हेक्साडेंटेट लीगैंड कहते हैं| 

(7) सेतु लीगैंड-
वे मोनोडेंटेट लीगैंड जो एक साथ एक से अधिक धातु परमाणु या आयन से  जुड़ते हैं सेतु लिगेंड कहलाते हैं|
 जैसे-
(8)  एम्बीडेंटेट लीगैंड-
वे लीगैंड जो दो विभिन्न परमाणुओं के द्वारा उप-सहसंयोजक बंध बना सकते हैं एम्बीडेंटेट लिगेंड कहलाते हैं|
जैसे-NO2´ स्वयं को केंद्रीय धातु या आयन से N या O  दोनों के माध्यम से जोड़ सकता है |
(9) कीलेटिंग लीगैंड तथा कीलेट्स-
जब एक पॉलिडेंटेट लिगेंड दो या अधिक दाता परमाणुओं द्वारा धातु आयन से इस प्रकार जुड़ता है कि वह धातु आयन के साथ पांच या छह सदस्यीय रिंग का निर्माण करता है तो उसे कीलेट लीगैंड तथा निर्मित रिंग को कीलेट कहते हैं|
 जैसे- एेथिलिन डाईएमीन(en), डाई एथिलिन ट्राईएमीन(dien), EDTA, आदि

Monday, November 30, 2020

उप-सहसंयोजन रसायन में प्रयुक्त प्रमुख शब्दावली

उप-सहसंयोजन रसायन में प्रयुक्त प्रमुख शब्दावली

(1) केंद्रीय धातु परमाणु या आयन-
उप-सहसंयोजन यौगिक में कुछ निश्चित परमाणु या परमाणु का समूह (लीगैंड) एक धातु परमाणु या आयन से स्थाई रूप से जुड़ा रहता है| इस धातु परमाणु या आयन को केंद्रीय धातु परमाणु या आयन कहते हैं|
 जैसे- K[Ag(CN)2] में Ag+ केंद्रीय धातु आयन है|

(2) लीगैंड-
 वह आणविक या आयनिक स्पीशीज, जो संकर यौगिक में केंद्रीय धातु परमाणु या आयन से स्थाई रूप से जुड़ी होती हैं, लीगैंड कहलाती है|
 जैसे-
K[Ag(CN)2] में CN´ आयन लीगैंड है|

लीगैंड केंद्रीय धातु से उप-सहसंयोजक बंध द्वारा जुड़े होते हैं|

(3) संकर या जटिल आयन-
वैद्युत रुप से आवेशित वह स्पीशीज, जो केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के एक या अधिक  लीगैंड के साथ संयोग करने से निर्मित होती है संकर आयन कहलाती है| जैसे- [Fe(CN)6]4- एक संकर आयन है|
एक संकर आयन ऋण आवेशित या धन आवेशित दोनों प्रकार का हो सकता है| धन आवेशित संकर आयन को धनायनिक संकर आयन तथा ऋण आवेश वाले संकर आयन को ऋण आयनिक संकर आयन कहा जाता है|
 जैसे-
 धनायनिक संकर आयन -
[Ag(NH3)2]+ 
[Cu(NH3)4]++ 
[Co(NH3)6]+++  
ऋणायनिक संकर आयन -
[Fe(CN)6]4-
[Ag(CN)2]-
[Cu(Cl)4]--

(4) उप-सहसंयोजन तथा आयनिक मंडल-
केंद्रीय धातु परमाणु तथा उससे जुड़े लीगैंड को संकर यौगिक का उप-सहसंयोजन मंडल कहा जाता है| जो भाग जल में आयनित हो जाता है (बड़े कोष्टक के बाहर लिखी स्पीशीज) उसे संकर यौगिक का आयनिक मंडल कहा जाता है| जैसे- [Cu(NH3)4]SO4 विलयन निम्न प्रकार अायनित होता है-
 [Cu(NH3)4]SO4 <===>  [Cu(NH3)4]2+   +    SO4´´
इसमें  [Cu(NH3)4]2+ उप-सहसंयोजक मंडल तथा SO4´´ आयनिक मंडल है|
(5) उप-सहसंयोजन बहुभुज-
केंद्रीय धातु परमाणु या आयन से सीधे जुड़े लीगैंडो की त्रिविमीय व्यवस्था केंद्रीय परमाणु के चारों ओर बहुभुज बना देती है जिसे उपसहसंयोजन बहुभुज कहते हैं| उपसहसंयोजन बहुभुज चतुष्कफलकीय, वर्गाकार, तलीय, षटकोणीय, त्रिकोणीय, आदि आकृति के होते हैं|
(6) धनायनिक,ऋणायनिक तथा उदासीन संकर यौगिक-
(A) धनायनिक संकर-
वे यौगिक जिनमें कुल उपस्थित आवेश धनात्मक होता है, उन्हें धनायनिक संकर यौगिक कहते हैं| 
जैसे- [Co(NH3)6]Cl3
[Fe(H2O)6]Cl3
(B) ऋणायनिक संकर-
वे यौगिक जिनमें संकर आयन का आवेश ऋणात्मक होता है, उन्हें ऋणायनिक संकर यौगिक कहते हैं| 
जैसे- K[Ag(CN)2]
K4[Fe(CN)6]
(C) उदासीन संकर-
वे संकर यौगिक जिन पर कोई आवेश नहीं होता है, उन्हें उदासीन संकर यौगिक कहते हैं| 
जैसे- [Pt(NH3)2Cl2]
[Ni(CO)4]

(7) उपसहसंयोजन संख्या या समन्वय संख्या-
लीगैंड की वह अधिकतम संख्या जो कि किसी केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के साथ संयोग करती है, उसे उस केंद्रीय धातु परमाणु या आयन की उपसहसंयोजन संख्या कहा जाता है|
 जैसे-  K4[Fe(CN)6] में केंद्रीय Fe++  आयन से 6CN- लिगेंड जुड़े हैं अतः इसकी उपसहसंयोजक संख्या 6 है|
(8) केंद्रीय धातु परमाणु की ऑक्सीकरण संख्या-
केंद्रीय धातु परमाणु के अन्य परमाणु या परमाणु समूहों (लिगेंड) से संयोग के पश्चात उस पर उपस्थित शुद्ध वैद्युत आवेश की संख्या को केंद्रीय धातु परमाणु या आयन की ऑक्सीकरण संख्या कहा जाता है|
 जैसे- K4[Fe(CN)6] में आयरन की ऑक्सीकरण संख्या +2 है|
(9) होमोलेप्टिक एवं हेट्रोलेप्टिक संकर यौगिक-
वह संकर यौगिक जिसमें केंद्रीय धातु परमाणु या आयन केवल एक प्रकार के दाता समूह (लिगेंड) से जुड़ा होता है वह होमोलेप्टिक संकर यौगिक कहलाता है|
 जैसे- [Fe(CN)6]4- , 
[Co(NH3)6]3+
 जिन संकर यौगिकों में केंद्रीय धातु एक साथ एक से अधिक प्रकार के दाता समूहों से जुड़ा होता है वह हेट्रोलेप्टिक संकर यौगिक कहलाते हैं 
जैसे- [Cu(NH3)4Cl2]+,
[Co(NH3)5SO4]+

Wednesday, November 25, 2020

उप-सहसंयोजन यौगिक (संकर या जटिल यौगिक) (Co-ordination Compounds)

उप-सहसंयोजन यौगिक (संकर या जटिल यौगिक) (Co-ordination Compounds)
 
उप-सहसंयोजन रसायन-
रसायन विज्ञान की वह शाखा जिसमें उपसहसंयोजन यौगिकों या संकर यौगिकों का अध्ययन किया जाता है, उपसहसंयोजन रसायन कहलाती है|

द्विक-लवण तथा उप-सहसंयोजन यौगिक में अंतर-
(1) द्विक लवण(Double salt )-
ये वे आणविक या योगात्मक यौगिक हैं जो कि ठोस अवस्था में रहते हैं परंतु जल में घोलने पर यह अपने घटक आयनों में वियोजित हो जाते हैं| इस प्रकार घटक विलयन में अपनी पहचान खो देते हैं| यह लवण सामान्यतः दो लवणों को आपस में मिलाकर बनाए जाते हैं|
जैसे -
(a) पोटाश एलम,K2SO4.Al2(SO4)3.24H2O

K2SO4 + Al2(SO4)3 + 24H2O -->
K2SO4.Al2(SO4)3.24H2O
जब पोटाश एलम को जल में घोला जाता है तो यह अपनी पहचान खोकर अपने आयनों में टूट जाता है|
K2SO4.Al2(SO4)3.24H2O ----> 2K+  +  2Al3+  +  4SO42-  +  24H2O 

(b) मोहर लवण, FeSO4.(NH4)2SO4.6H2O

FeSO4 + (NH4)2SO4 + 6H2O -->
FeSO4.(NH4)2SO4.6H2O
जब मोहर लवण को जल में घोला जाता है तो यह अपनी पहचान खोकर अपने आयनों में टूट जाता है|
FeSO4.(NH4)2SO4.6H2O ----> Fe2+  +  2NH4+  +  2SO42-  +  6H2O 
(2) उप-सहसंयोजन यौगिक-
उप-सहसंयोजन यौगिक या उप-सहसंयोजक यौगिक वे आणविक या योगात्मक यौगिक होते हैं जिनमें केंद्रीय धातु परमाणु या आयन स्थाई रूप से कुछ निश्चित परमाणु या परमाणु के समूहों से जुड़ा रहता है, जिन्हें लीगैंड कहते हैं| लिगैंड कम से कम एक इलेक्ट्रॉन युग्म को केंद्रीय धातु या आयन को प्रदान करके उससे एक उप-सहसंयोजक बंध द्वारा जुड़ने की प्रवृति रखते हैं|
जैसे -K4[Fe(CN)6
यह विलयन में निम्न प्रकार वियोजित होता है-
K4[Fe(CN)6  <===> 4K+  +  [Fe(CN)6]





Sunday, November 22, 2020

लैंथेनॉयडस के सामान्य गुण

लैंथेनॉयडस के सामान्य गुण
(1) प्राप्ति-
यद्यपि इनको दुर्लभ मृदा तत्व समझा जाता है परंतु यह इतनी दुर्लभ नहीं है| यह प्रकृति में सूक्ष्म मात्रा में परंतु बहुतायत में वितरित रहते हैं|
(2) इलेक्ट्रॉनिक विन्यास-
इन तत्वों का सैद्धांतिक इलेक्ट्रॉनिक विन्यास [Xe]4fn5d16s2  प्रकार का होता है| चूँकि 4f उपकोश की उर्जा 5d  उपकोश की ऊर्जा के काफी निकट है अतः यह विभेद करना कठिन हो जाता है कि इलेक्ट्रॉन 4f उपकोश में प्रवेश कर रहा है या 5d  उपकोश में| यही कारण है कि इनके अनुमानित अभिविन्यास इनके अवलोकित अभिविन्यास से भिन्न होते हैं|अवलोकित अभिविन्यास मुख्यतः [Xe]4fn+16s2 प्रकार के होते हैं|

(3) ऑक्सीकरण अवस्थाएं-
लैंथेनॉयड्स की प्रमुख ऑक्सीकरण अवस्था +3 है इसके अतिरिक्त यह +2 तथा +4 अवस्था भी दर्शाते हैं| जलीय विलयन में +2 एवं +4 की अपेक्षा +3 अवस्था अधिक स्थाई होती है|
(4) चुंबकीय गुण-
इन तत्वों की अधिकांश आयन +3 अवस्था में अनुचुंबकीय प्रकृति के होते हैं तथा एक निश्चित चुंबकीय आघूर्ण प्रदर्शित करते हैं| La3+ तथा Lu3+ में शून्य चुंबकीय गुण पाया जाता है तथा यह अनु चुंबकीय व्यवहार प्रदर्शित नहीं करते हैं| 
          सामान्यतः अनुचुंबकीय व्यवहार एक या एक से अधिक अयुग्मित इलेक्ट्रॉनों की उपस्थिति के कारण होता है वह परमाणु या आयन जिसमें अयुग्मित इलेक्ट्रॉन अनुपस्थित होता है प्रतिचुंबकीय कहलाते हैं|
(5) आयनों के रंग-
कुछ अपवादों को छोड़कर लैंथेनॉएड्स के त्रिधनात्मक आयन रंगीन होते हैं| यह जलीय तथा ठोस दोनों अवस्थाओं में रंगीन होते हैं क्योंकि इनके f- कक्षकों में अयुग्मित इलेक्ट्रॉन होते हैं|
(6) परमाणु तथा आयनों का आकार (लैंथेनॉयड संकुचन)-
सीरियम से ल्युटीशियम की ओर जाने पर परमाणु तथा आयनों का आकार निरंतर घटता है| यह कमी त्रिधनात्मक आयनों में अधिक नियमित हैं|
    जब हम Ce से Lu की ओर गति करते हैं तो परमाणु क्रमांक बढ़ता है तथा अंतिम इलेक्ट्रॉन भीतरी 4f कक्षक में प्रवेश करता है| नाभिकीय आवेश बढ़ने पर एक 4f इलेक्ट्रॉन का दूसरे 4f इलेक्ट्रॉन द्वारा आवरणी प्रभाव 4f ऑर्बिटल की विशिष्ट आकृतियों के कारण बहुत अधिक प्रभावी नहीं होता है| अतः परमाणु संख्या में वृद्धि होने पर प्रत्येक 4f इलेक्ट्रॉन द्वारा अनुभावित प्रभावी नाभिकीय आवेश बढ़ता है| इसके कारण 4f उपकोश में प्रत्येक इलेक्ट्रॉन के प्रवेश के साथ आकार में थोड़ी सी कमी आ जाती है| इस प्रकार 4f उपकोश में प्रत्येक इलेक्ट्रॉन के बढ़ने पर प्रभावी नाभिकीय आवेश में वृद्धि होती है तथा आकार में संकुचन होता है| यह संकुचन निरंतर होता रहता है तथा इस प्रभाव को लैंथेनाइड संकुचन कहा जाता है|
लैंथेनाइड संकुचन के परिणाम-
(a) परमाण्विक एवं आयनिक त्रिज्या-
सामान्यतः समूह में परमाण्विक एवं आयनिक त्रिज्या परमाणु क्रमांक बढ़ने के साथ बढ़ती हैं| यह तथ्य प्रथम एवं द्वितीय संक्रमण श्रेणियों की तुलना करने पर स्पष्ट होता है|
(b) घनत्व-
लैंथेनाइड संकुचन के कारण परमाणु के आकार में कमी होती है फलस्वरुप लंथनॉएड्स के बाद उपस्थित सभी तत्वों में और सामान्य रूप से उनके घनत्व में वृद्धि पाई जाती है|
(c) आयनन विभव-
लैंथेनाइड संकुचन के कारण टंगस्टन तथा उससे आगे के तृतीय पंक्ति तत्वों की आयनन विभव भी प्रभावित होते हैं| लैंथेनाइड संकुचन की अनुपस्थिति में इनके आयनन विभव बहुत कम होने चाहिए थे तथा समूह में नीचे जाने पर इनमें नियमित कमी होने चाहिए थी|

(7) जटिल यौगिकों का निर्माण-
d-ब्लॉक तत्वों की अपेक्षा लैंथेनाइड कम मात्रा में तथा कठिनता से जटिल यौगिकों का निर्माण करते हैं|
(8) मिश्र धातु निर्माण-
लेंथेनॉइड्स अधिक सघन तथा उच्च गलनांक वाली धातु हैं| यह दूसरे धातुओं के साथ विशेषतः आयरन के साथ मिश्र धातु का निर्माण करते हैं| यह मिश्र धातुएं अत्यंत उपयोगी हैं क्योंकि इनमें उपस्थित दुर्लभ मृदा तत्व इस्पात की कार्य क्षमता को बढ़ा देते हैं|

f-ब्लॉक तत्व(लैंथेनॉयड्स तथा एक्टिनॉयड्स)

f-ब्लॉक तत्व(लैंथेनॉयड्स तथा एक्टिनॉयड्स)
जिन तत्वों में अंतिम इलेक्ट्रॉन या संयोजी इलेक्ट्रॉन (n-2)f उपकोश में प्रवेश करता है उन्हें f-ब्लॉक तत्व या अंतः संक्रमण तत्व कहा जाता है|
f-ब्लॉक तत्वों में दो श्रेणियां लैंथेनॉयड्स तथा एक्टिनॉयड्स श्रेणियां पाई जाती हैं|
(1) लैंथेनॉयड श्रेणी- 
इन्हें f-ब्लॉक तत्वों की प्रथम श्रेणी या प्रथम अंतः संक्रमण श्रेणी भी कहते हैं| इस श्रेणी में परमाणुओं के 4f ऑर्बिटल में अंतिम इलेक्ट्रॉन प्रवेश करते हैं तथा इस श्रेणी में सीरियम(Ce-58) से लेकर ल्युटिशियम(Lu-71) तक के 14 तत्व सम्मिलित हैं| यह तत्व आवर्त सारणी में लैंथेनम(La-57) का अनुसरण करते हैं तथा उससे भौतिक एवं रासायनिक गुणों में समानता प्रदर्शित करते हैं अतः इन्हें लैंथेनॉइड्स कहा जाता है|

(2) एक्टिनॉयड श्रेणी- 
इन्हें f-ब्लॉक तत्वों की द्वितीय श्रेणी या द्वितीय अंतः संक्रमण श्रेणी भी कहते हैं| इस श्रेणी में परमाणुओं के 5f ऑर्बिटल में अंतिम इलेक्ट्रॉन प्रवेश करते हैं तथा इस श्रेणी में थोरियम(Th-90) से लेकर लॉरेंशियम(Lr-103) तक के 14 तत्व सम्मिलित हैं| यह तत्व आवर्त सारणी में एक्टिनियम(Ac-89) का अनुसरण करते हैं तथा उससे भौतिक एवं रासायनिक गुणों में समानता प्रदर्शित करते हैं अतः इन्हें एक्टिनॉइड्स कहा जाता है|

    सभी अंतः संक्रमण तत्व धातु हैं तथा पृथ्वी की सतह में दुर्लभता से मिलते हैं अतः इन्हें सामूहिक रूप से दुर्लभ मृदा या दुर्लभ मृदा तत्व कहा जाता है|