Advance Chemistry

Sunday, December 20, 2020

मोलर चालकता का सांद्रण के साथ परिवर्तन(Variation of Molar conductivity with concentration)

मोलर चालकता का सांद्रण के साथ परिवर्तन(Variation of Molar conductivity with concentration

(A) प्रबल विद्युत अपघट्यों के लिए मोलर चालकता का सांद्रण के साथ परिवर्तन-
एक प्रबल विद्युत अपघट्य (जैसे KCl, HCl आदि) की मोलर चालकता विलयन के सांद्रण में वृद्धि करने पर मंद गति से घटती है|
   विलयन के सांद्रण को कम करने पर (अर्थात तनुता को बढ़ाने पर) एक प्रबल विद्युत अपघट्य विलयन की मोलरता चालकता एक सीमांत मान की ओर अग्रसर होती है| सांद्रण के शून्य की ओर अग्रसर होने की दशा में प्राप्त मोलर चालकता का सीमांत मान को अनंत तनुता पर विलयन की मोलर चालकता कहा जाता है| इसे ^m°° से निरूपित किया जाता है|
     एक प्रबल विद्युत अपघट्य सभी तनुताओं पर लगभग पूर्णरूपेण आयनित होता है| जब किसी प्रबल विद्युत अपघट्य विलयन के सांद्रण में वृद्धि (अर्थात तनुता में कमी) की जाती है तो प्रति इकाई आयतन में उपस्थित अणुओं की संख्या अधिक हो जाती है| इसके कारण विपरीत आवेश युक्त आयन एक दूसरे से अधिक निकट आ जाते हैं और अधिक अंतरआयनिक आकर्षण का अनुभव करते हैं| इसके फलस्वरुप विलयन की मोलर चालकता कम हो जाती है| यही कारण है कि सांद्रण में वृद्धि करने पर एक प्रबल विद्युत अपघट्य विलयन की मोलर चालकता में अल्प कमी दिखाई देती है| इसके विपरीत विलयन के सांद्रण में कमी (अर्थात तनुता में वृद्धि) करने पर प्रति इकाई आयतन में उपस्थित आयनों की संख्या कम हो जाती है जिससे अंतरआयनिक आकर्षण कम हो जाता है और मोलर चालकता में अल्प वृद्धि प्राप्त होती है| यही कारण है की सांद्रण में कमी (तनुता में वृद्धि) करने पर एक प्रबल विद्युत अपघट्य विलयन की चालकता में अल्प वृद्धि प्राप्त होती है|

(B) दुर्बल विद्युत अपघट्यों के लिए मोलर चालकता का सांद्रण के साथ परिवर्तन-
दुर्बल विद्युत अपघट्य (जैसे- CH3COOH, NH4OH, HCN आदि) विलयन में बहुत कम मात्रा में वियोजित (आयनित) होते हैं| इसलिए समान सांद्रण के एक प्रबल विद्युत अपघट्य विलयन की तुलना में एक दुर्बल विद्युत अपघट्य विलयन में उपस्थित आयनों की संख्या बहुत कम होती है| अतः एक दुर्बल विद्युत अपघट्य विलयन की मोलर चालकता का मान प्रबल विद्युत अपघट्य विलयन की मोलर चालकता के मान से काफी कम पाया जाता है|

कोल्हराऊश का नियम (Kohlrausch's law)-
कोल्हराऊश ने सन 1875 में अनेक प्रबल विद्युत अपघट्यों की अनंत तनुता पर चालकताओं(^m°°) का गहन अध्ययन किया और एक नियम दिया जिसे  कोल्हराऊश का नियम कहा जाता है| इस नियम के अनुसार-
       किसी विद्युत अपघट्य की अनंत तनुता पर चालकता इसके धनायनों तथा ऋणायनों की मोलर चालकताओं के योग के बराबर होती है, यदि प्रत्येक चालकता पद को विद्युत अपघट्य के सूत्र में उपस्थित संगत आयनों की संख्या से गुणा किया जाए|
   यदि किसी विद्युत अपघट्य के धनायनों तथा ऋणायनों की अनंत तनुता पर मोलर चालकताओं को क्रमशः तथा से निरूपित किया जाए तो कोलराउश के नियमानुसार-
जैसे -

Friday, December 18, 2020

विद्युत अपघटनी चालकता का मापन( Measurement of electrolytic conductivity)

विद्युत अपघटनी चालकता का मापन (Measurement of electrolytic conductivity)-
एक विलयन की विद्युत चालकता उसके प्रतिरोध के व्युत्क्रम के बराबर होती है| अतः किसी विलयन की विद्युत अपघटनी चालकता का मापन उसके प्रतिरोध को मापकर किया जा सकता है| एक विद्युत अपघट्य विलयन के प्रतिरोध को चालकता सेल तथा व्हीटस्टोन सेतु की सहायता से आसानी से मापा जा सकता है|
(a) चालकता सेल तथा सेल स्थिरांक-
किसी विलयन के एक निश्चित आयतन के प्रतिरोध को मापने के लिए एक विशेष प्रकार के सेल का प्रयोग किया जाता है, जिसे चालकता सेल कहा जाता है| यह सेल पायरेक्स कांच का बना होता है तथा इसमें दो प्लैटिनम इलेक्ट्रोड एक दूसरे से एक निश्चित दूरी पर स्थित होते हैं| अनेक प्रकार के चालकता सेल प्रयोग में लाए जाते हैं| एक चालकता सेल में दोनों इलेक्ट्रोड के मध्य की दूरी(l) तथा उनके क्षेत्रफल(A) नियत होते हैं| इसलिए, एक चालकता सेल विशेष के लिए l/A  का मान स्थिर रहता है| इस स्थिर राशि को सेल स्थिरांक कहा जाता है| इस प्रकार,              सेल स्थिरांक = l/A 
 सेल स्थिरांक का मात्रक cm-1 या m-1 हैं|
(b) व्हीटस्टोन सेतु-
इस सेतु की सहायता से किसी तार या विद्युत अपघट्य विलयन के प्रतिरोध को आसानी से मापा जा सकता है| इसमें प्रतिरोध R1,  R2,  R3 तथा X  युक्त चार भुजाएं परस्पर एक गैल्वेनोमीटर(G), एक बैटरी तथा एक कुंजी(K) के द्वारा चित्र में दर्शाए अनुसार एक दूसरे से जुड़ी रहती हैं| प्रतिरोध R2 परिवर्तनीय होता है जबकि प्रतिरोध X वह अज्ञात प्रतिरोध है जिसका मान मापना है| प्रतिरोध R1 तथा R3 ज्ञात प्रतिरोध हैं|
     कुंजी K  की सहायता से परिपथ को पूर्ण करने के बाद परिवर्तनीय प्रतिरोध R2 को इस प्रकार समायोजित किया जाता है कि शून्य विक्षेप स्थिति प्राप्त हो जाए| यह  वह स्थिति है जबकि गैल्वेनोमीटर में कोई विक्षेप नहीं होता| इस स्थिति में व्हीटस्टोन सेतु सिद्धांत के अनुसार, 
     R1/R2 = X/R3
या,   X = R1R3 / R2
(c) विद्युत अपघटनी चालकता का मापन-
विद्युत अपघटनी चालकता के मापन के लिए चालकता सेल में विद्युत अपघट्य विलयन को भरकर उसे व्हीटस्टोन सेतु से X  प्रतिरोध की जगह पर जोड़ दिया जाता है और बैटरी से धारा प्रवाहित करके व्हीटस्टोन सिद्धांत के अनुसार X  का मान ज्ञात कर लिया जाता है|
    हमें यह पता है कि प्रतिरोध के व्युत्क्रम के बराबर उस विद्युत अपघट्य विलयन की चालकता होती है| अतः विद्युत अपघटन विलयन की चालकता को माप  लिया जाता है|
   विद्युत् चालकता C = 1/X 

Wednesday, December 16, 2020

विद्युत अपघटनी विलयनों का चालकत्व( Electrolytic Conduction )

विद्युत अपघटनी विलयनों का चालकत्व (Electrolytic Conduction )-
किसी चालक से विद्युत धारा के प्रवाह की सहजता को उस चालक की विद्युत चालकता कहा जाता है| किसी विद्युत अपघट्य विलयन से विद्युत धारा के प्रवाह की सहजता को उसकी विद्युत अपघटनी चालकता कहा जाता है|

(1) ओम का नियम(Ohm's law )-
ओम के नियम के अनुसार, एक चालक पर स्थित विभवांतर उससे प्रवाहित होने  वाली विद्युत धारा के समानुपाती होती है| 
यदि किसी चालक पर स्थित विभवांतर (वोल्ट में) V हो तथा विद्युत धारा की शक्ति (एंपियर में) I हो तो ओम के नियम के अनुसार,
              V   {    I
या,  V  = R.I 
जहां, R  एक समानुपाती स्थिरांक है इसे चालक का प्रतिरोध कहा जाता है| इसका मात्रक ओम है|
(2) विशिष्ट प्रतिरोध(Specific resistance )-
किसी चालक का प्रतिरोध R चालक की लम्बाई l के समानुपाती होती है|
      R     {         l 
तथा किसी चालक का प्रतिरोध R चालक के अनुप्रस्थ काट के क्षेत्रफल A के व्युत्क्रमानुपाती होता है|
      R       {     1/A  
अतः, 
      R       {     l/A 
या,  R  = p l/A
जहाँ p(रो) एक नियतांक है| जिसे चालक का विशिष्ट प्रतिरोध कहा जाता है|
यदि l = 1m, तथा A= 1m2,  हो तो 
      R= p 
अतः किसी चालक का विशिष्ट प्रतिरोध उस चालक का वह प्रतिरोध होता है जब उस चालक की लम्बाई 1m तथा उसका अनुप्रस्थ काट का क्षेत्रफल 1m2 हो|
 इसका मात्रक ओम मीटर है|

(3) विद्युत चालकता(Electrical conductance ) -
किसी चालक से विद्युत प्रवाहित करने की सहजता को उस चालक की विद्युत चालकता कहा जाता है| इसे चालक के प्रतिरोध के व्युत्क्रम के बराबर माना जाता है तथा C से निरूपित किया जाता है| इस प्रकार,
          C = 1/R 
 जहां R चालक का प्रतिरोध है|
विद्युत चालकता का मात्रक ohm-1 है, जिसे mho  के रूप में भी व्यक्त किया जाता है| इसे साइमंस(S) इकाई में भी व्यक्त किया जाता है|
1S = 1ohm-1 = 1 mho 

(4) विशिष्ट चालकता या चालकता(Specific conductivity or conductivity)-
किसी चालक के विशिष्ट प्रतिरोध के व्युत्क्रम को उस चालक की विशिष्ट चालकता या केवल चालकता कहा जाता है| इसे ग्रीक अक्षर k(कप्पा) से निरूपित किया जाता है| इस प्रकार,
          k = 1/p 
   जहाँ k=कप्पा तथा p= रो है |
 विशिष्ट चालकता की एक अन्य परिभाषा को निम्न प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है-
      k = 1/p × l/A 
  या, k = C × l/A 
यदि l=1cm तथा A= 1cm2 हो तो, 
        k = C 
 अतः यदि किसी चालक की लंबाई 1cm तथा अनुप्रस्थ काट क्षेत्रफल 1cm2 है तो उसकी विद्युत चालकता को विशिष्ट चालकता कहा जाता है|
विशिष्ट चालकता का मात्रक ohm-1cm-1  या S cm-1 है |

(5) मोलर चालकता( Molar conductivity )- (^m)
किसी विलयन के एक निश्चित आयतन में उपस्थित एक विद्युत अपघट्य पदार्थ के  एक मोल द्वारा उपलब्ध कराए गए आयनों की चालकता शक्ति को मोलर चालकता कहा जाता है| इसे ^m से प्रदर्शित करते हैं|
 मोलर चालकता तथा विशिष्ट चालकता में संबंध-
 मोलर चालकता(^m) तथा विशिष्ट चालकता(k) में संबंध निम्न है-
           ^m = k/Cm 
 जहां, Cm  मोल प्रति इकाई आयतन में विलयन का सांद्रण है|
 यदि विलयन के Vm cm3 में विद्युत अपघट्य पदार्थ का एक मोल घुलित हो तो
      Cm = 1/Vm  mol cm-3
अतः,   ^m = k × Vm 

या, 
  ^m = k ×1000/विलयन की मोलरता 

^m का  मात्रक ohm-1 cm2 mol-1है|

ऑक्सीकरण अपचयन अभिक्रियाएं या रेडॉक्स अभिक्रियाएं (Oxidation-Reduction reaction or Redox reaction)

ऑक्सीकरण अपचयन अभिक्रियाएं या रेडॉक्स अभिक्रियाएं (Oxidation-Reduction reaction or Redox reaction)
जिन अभिक्रियाओं में ऑक्सीकरण तथा अपचयन एक साथ संपन्न होते हैं उन अभिक्रियाओं को रेडॉक्स अभिक्रियाये या ऑक्सीकरण-अपचयन अभिक्रियाए कहा जाता है|
 जैसे-
2HgCl2 + SnCl2 ----> Hg2Cl2 + SnCl4
इस अभिक्रिया में HgCl2 का अपचयन हो रहा है जबकि SnCl2 ऑक्सीकृत हो रहा है| इस प्रकार यह एक रेडॉक्स अभिक्रिया है|
ऑक्सीकरण तथा अपचयन की इलेक्ट्रॉनिक संकल्पना-

ऑक्सीकरण-
इस संकल्पना के अनुसार ऑक्सीकरण वह प्रक्रम है जिसमें कोई परमाणु अणु या आयन एक या अधिक इलेक्ट्रॉनों का त्याग करता है| इलेक्ट्रॉनों का त्याग करने के बाद प्राप्त स्पीशीज में या तो धन आवेश की वृद्धि होती है या ऋण आवेश में कमी होती है|
 जैसे-
H    ---->  H+    +     e´
Cu   ---->  Cu2+    +   2e´
Fe2+    ---->  Fe3+    +   3e´
Sn2+    ---->  Sn4+    +   2e´
Cl´   ---->  Cl   +     e´

अपचयन -
इस संकल्पना के अनुसार अपचयन वह प्रक्रम है जिसमें कोई परमाणु अणु या आयन एक या अधिक इलेक्ट्रॉनों को ग्रहण करता है| इलेक्ट्रॉनों को ग्रहण  करने के बाद प्राप्त स्पीशीज में या तो धन आवेश की कमी होती है या ऋण आवेश में वृद्धि होती है|
 जैसे-
H+    +     e´ ----->  H 
Cu2+    +   2e´ -----> Cu 
 Fe3+    +   e´ ------> Fe2+
Sn4+    +   2e´ ----> Sn2+
Cl2 + 2e´   ---->  2Cl´


ऑक्सीकरण तथा अपचयन एक साथ संपन्न होते हैं और एक दूसरे के पूरक होते हैं जैसे-
2Mg  +  O2  ----->  2MgO 
इलेक्ट्रॉनिक संकल्पना के अनुसार इस अभिक्रिया में मैग्नीशियम ऑक्सीजन को इलेक्ट्रॉन दे रहा है, जबकि ऑक्सीजन मैग्नीशियम से इलेक्ट्रॉन ग्रहण कर रहा है| अतः मैग्नीशियम का ऑक्सीकरण हो रहा है, जबकि ऑक्सीजन का अपचयन हो रहा है|
Mg  ---->  Mg2+    +   2e´      
2Mg  ---->  2Mg2+    +   4e´

O  + 2e´  -----> O´´
O2  + 4e´  -----> 2O´´
एक रेडॉक्स अभिक्रिया को निम्न प्रकार भी परिभाषित किया जा सकता है-
         वह अभिक्रिया जिसमे एक अभिकारक से किसी दूसरे अभिकारक को इलेक्ट्रॉनों का स्थानांतरण किया जाता है ऑक्सीकरण - अपचयन अभिक्रिया या रेडॉक्स अभिक्रिया कहलाती है| 
       जो पदार्थ ऑक्सीकृत होता है वह किसी अन्य पदार्थ को इलेक्ट्रॉन देकर उसे अपचयित होने के लिए बाध्य करता है| अतः स्वयं ऑक्सीकृत होने वाला कोई पदार्थ एक अपचायक की भांति कार्य करता है| इसी प्रकार जो पदार्थ अपचयित होता है वह किसी अन्य पदार्थ से इलेक्ट्रॉन ग्रहण कर उसे ऑक्सीकृत होने के लिए बाध्य करता है इस प्रकार अपचयित होने वाला पदार्थ एक ऑक्सीकारक की भांति कार्य करता है| दूसरे शब्दों में ऑक्सीकारक वह पदार्थ है जो इलेक्ट्रॉनों को ग्रहण करता है, एवं अपचायक वह पदार्थ है जो इलेक्ट्रॉनों को त्यागता है|

ऑक्सीकरण तथा अपचयन अर्द्धअभिक्रियाएं-
एक रेडॉक्स अभिक्रिया में ऑक्सीकरण तथा अपचयन प्रक्रम एक साथ संपन्न होते हैं| अतः रेडॉक्स अभिक्रिया को व्यक्त करने वाली रासायनिक समीकरण को दो अर्द्धसमीकरणों में विभाजित किया जा सकता है| एक अर्द्धसमीकरण ऑक्सीकरण प्रक्रम को तथा दूसरी अर्द्धसमीकरण अपचयन प्रक्रम को निरूपित करती है| इस प्रकार प्रत्येक समीकरण एक अर्द्धअभिक्रिया को निरूपित करती है|
जैसे -
एक रेडॉक्स अभिक्रिया, 
Zn(s) + Cu2+(aq) -----> Zn2+(aq) + Cu को निम्न प्रकार से दो अर्द्धसमीकरणों में विभाजित किया जा सकता है-
Zn(s) -----> Zn2+(aq) + 2e´ (ऑक्सीकरण अर्द्धअभिक्रिया)

Cu2+(aq) + 2e´ -----> Cu ( अपचयन अर्द्धअभिक्रिया)



Tuesday, December 15, 2020

वैद्युत रसायन तथा विद्युत रासायनिक सेल (Electrochemistry and electrochemical cell)

वैद्युत रसायन तथा विद्युत रासायनिक सेल (Electrochemistry and electrochemical cell)

वैद्युत रसायन (Electrochemistry)-
रसायन विज्ञान की वह शाखा जिसमें रासायनिक ऊर्जा तथा विद्युत ऊर्जा के परस्पर रूपांतरण तथा उनके मध्य संबंध का अध्ययन किया जाता है विद्युत रसायन कहलाती है|
विद्युत रासायनिक सेल -(Electrochemical cell)-
जब समान या विभिन्न प्रकार के विद्युत अपघट्यों के विलयनों में डूबे दो इलेक्ट्रोड रासायनिक ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में या विद्युत ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करने में सक्षम होते हैं तो तंत्र को एक विद्युत रासायनिक सेल कहा जाता है|
 विद्युत रासायनिक सेल निम्नलिखित दो प्रकार के होते हैं-
(1) विद्युत अपघटनी सेल(Electrolytic cell) -
जो सेल विद्युत ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं, उन्हें विद्युत अपघटनी सेल कहा जाता है| 
        इस प्रकार के सेलों में एक बाह्य स्रोत से एक विद्युत अपघट्य विलयन में विद्युत धारा प्रवाहित की जाती है, जो एक रासायनिक अभिक्रिया को जन्म देती है|
            विद्युत लेपन, धातुओं के विद्युत शुद्धीकरण आदि में प्रयुक्त सेल इस प्रकार के सेल हैं|


(2) गैल्वेनिक सेल(Galvanic cell)-
जो सेल रासायनिक ऊर्जा को विद्युत् ऊर्जा में बदलते हैं,  उन्हें गैल्वेनिक सेल कहा जाता है|
     इस प्रकार के सेलों में एक रासायनिक अभिक्रिया के फलस्वरूप विद्युत् ऊर्जा की उत्पत्ति होती है |
       शुष्क सेल, डेनियल सेल, लेक्लांशे सेल आदि इस प्रकार के सेल हैं|

Monday, December 14, 2020

क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत (Crystal field theory, CFT )

क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत (Crystal field theory, CFT )
क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत का प्रतिपादन बैदे ने 1929 में आयनिक क्रिस्टलों की बंध प्रकृति की व्याख्या हेतु किया था|
        क्रिस्टल क्षेत्र सिद्धांत के अनुसार धातु आयन तथा लिगेंड के मध्य पारस्परिक क्रिया पूर्ण रूप से वैद्युतस्थैतिक (आयनिक) होती है| जब लीगैंड केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के संपर्क में आता है तो केंद्रीय धातु परमाणु के पांच अपभ्रस्ट(degenerate) d-ऑर्बिटल (समान ऊर्जा वाले d-ऑर्बिटल) विपाटित(splitted) हो जाते हैं, अर्थात ये लिगेंड के वैद्युत स्थैतिक क्षेत्र के प्रभाव के कारण विभिन्न ऊर्जा स्तरों में बँट जाते हैं|  इस प्रकार d-ऑर्बिटलों की अपभ्रस्टता  खत्म हो जाती है तथा वे दो समूहों में, जिन्हें t2g (dxy, dyz, dzx ) तथा eg ( dx2-y2, dz2 ) समूह कहते हैं, पृथक हो जाते हैं|  यह विपाटन संकर की ज्यामिति पर निर्भर करता है| विपाटित d-ऑर्बिटल के इन दो समूहों के बीच ऊर्जा अंतराल को प्रायः 10 Dq या ∆  से प्रदर्शित करते हैं|  लिगेंड के प्रतिकर्षण के कारण धातु आयन के इलेक्ट्रॉन उन d- ऑर्बिटलों में प्रवेश करते हैं जिनकी पाली लीगैंड की दिशा से अधिकतम दूरी पर स्थित होती हैं| d- ऑर्बिटलों में इलेक्ट्रानों का प्रवेश हुण्ड के नियम से होता है |

अष्टफलकीय संकर यौगिक -

चतुष्फलकीय संकर यौगिक -


Sunday, December 13, 2020

उप-सहसंयोजन यौगिकों में आबंधन (Bonding in Co-ordination compounds)

उप-सहसंयोजन यौगिकों में आबंधन
(Bonding in Co-ordination compounds)

(A) संयोजकता आबंध सिद्धांत -(Valence bond theory, VBT)-
इस सिद्धांत का प्रतिपादन लाइनस पॉलिंग ने किया था| अतः इसे पॉलिंग का सिद्धांत भी कहते हैं| इस सिद्धांत की मुख्य अवधारणाएं निम्न है-
(1) केंद्रीय धातु परमाणु या आयन में कई रिक्त ऑर्बिटल उपस्थित होते हैं जिनमें लिगेंड द्वारा दिए गए इलेक्ट्रॉन समावेशित होते हैं| प्रत्येक मोनोडेंटेड लीगैंड केंद्रीय धातु परमाणु या आयन को इलेक्ट्रॉनों का एक युग्म दान करता है|
(2) केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के रिक्त परमाण्विक ऑर्बिटल आवश्यकतानुसार संकरण में भाग लेते हैं|
(3) जब लिगेंड केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के संपर्क में आता है तो केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के रिक्त संकरित ऑर्बिटल लीगेंड के इलेक्ट्रॉनों के एकाकी युग्म युक्त ऑर्बिटलों के साथ अतिव्यापन करते हैं तथा प्रबल लिगेंड धातु उप-सहसंयोजक बंधों का निर्माण करते हैं|
(4) संकर निर्माण प्रक्रिया में हुंड के अधिकतम बहुलता के नियम का पालन किया जाता है| परंतु प्रबल लिगेंड के प्रभाव के कारण इलेक्ट्रॉन हुंड के नियम के विरुद्ध युग्मित हो सकते हैं|
(5)  केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के अनाबंधी इलेक्ट्रॉन अप्रभावित रहते हैं तथा रासायनिक बंध निर्माण में भाग नहीं लेते हैं|
(6) यदि किसी संकर में एक या अधिक अयुग्मित इलेक्ट्रॉन उपस्थित हो तो वह संकर अनुचुंबकीय प्रकृति का होता है| यदि संकर में उपस्थित सभी इलेक्ट्रॉन युग्मित हैं तो संकर की प्रकृति प्रतिचुंबकीय होती है|

संयोजकता आबंध सिद्धांत के आधार पर कुछ उप-सहसंयोजन यौगिकों की संरचना तथा आकृति-

(1) अष्टफलकीय संकर-
अष्टफलकीय संकरों का निर्माण d2sp3 या sp3d2 संकरण द्वारा होता है|
जैसे- 
हैक्सासायनोफेरेट(||) आयन, [Fe(CN)6]4-
इस संकर में आयरन की ऑक्सीकरण अवस्था +2 है| अतः इस अवस्था में Fe2+ के सभी 3d ऑर्बिटल भरे हुए हैं| CN´ आयन प्रबल लीगेंड है| जब 6 CN´ लीगेंड Fe2+ के निकट आते हैं तो 3d  इलेक्ट्रॉन हुंड के अधिकतम बहुलता सिद्धांत के विरुद्ध युग्मित होने लगते हैं| अतः दो 3d  ऑर्बिटल रिक्त हो जाते हैं| 6 CN´ लिगेंड प्रदान किए गए 12 इलेक्ट्रॉनों को समावेशित करने के लिए केंद्रीय Fe2+ आयन के पास 6 रिक्त परमाण्विक ऑर्बिटलों  की आवश्यकता होती है| अतः Fe2+ के दो 3d, एक 4s तथा तीन 4p  ऑर्बिटल मिलकर d2sp3 संकरण करते हैं और CN- द्वारा दिए गए 12 इलेक्ट्रॉनों को समावेशित कर लेते हैं|
(2) चतुष्फलकीय संकर-
ये संकर sp3 संकरण द्वारा बनते हैं|
जैसे -
निकिल कार्बोनिल, [Ni(CO)4]
इस संकर में निकिल की ऑक्सीकरण अवस्था 0 है| प्रबल CO लीगैंडो की उपस्थिति में इलेक्ट्रॉन 4s इलेक्ट्रान 3d ऑर्बिटल में प्रवेश करने के लिए बाध्य हो जाते हैं| जिसके कारण sp3 संकरण हो पाता है|
(3) वर्गसमतलीय संकर-
वर्गसमतलीय संकर dsp2 संकरण द्वारा निर्मित होते हैं|
जैसे - टेट्रासायनाइडोनिकिलेट(||) आयन, [Ni(CN)4]2-



Wednesday, December 9, 2020

उपसहसंयोजन यौगिकों का नामकरण(Nomenclature of Co-ordination compounds)

उपसहसंयोजन यौगिकों का नामकरण(Nomenclature of Co-ordination compounds)
उपसहसंयोजन यौगिकों का नामकरण 1957 में प्रतिपादित तथा 1959 में संशोधित I.U.P.A.C. नामांकन पद्धति द्वारा किया जाता है| उपसहसंयोजन यौगिकों की I.U.P.A.C. नामांकन पद्धति निम्न प्रकार है-
 उपसहसंयोजक यौगिकों के नामकरण के नियम- 
आधुनिक I.U.P.A.C.पद्धति के अनुसार किसी उपसहसंयोजन यौगिकों के नामांकन में निम्न नियम हैं- 
(1) आयनों का नामकरण क्रम-
आयनिक संकरो में धनात्मक आयन को सबसे पहले लिखा जाता है और ऋणात्मक आयन को उसके बाद लिखते हैं| नाम का आरंभ छोटे अक्षर से होता है तथा संकर भाग को एक शब्द के रूप में लिखा जाता है| आयनिक संकरों के नाम एक शब्द के रूप में लिखे जाते हैं|
(2) लीगैंडों का नामकरण-
विभिन्न प्रकार के लीगैंडों का नामकरण निम्न है-
(a) उदासीन लीगैंड का नाम और उनकी बातें लिखते हैं| जैसे- 
CO  कार्बोनिल 
CS   थायोकार्बोनिल
NO नाइट्रोसिल 
NH2CONH2 ऐथिलिन डाई ऐमीन(en)
C5H5N पायरिडीन 
H2O एक्वा 
NH3 एमाइन 
(b) ऋणायनिक लीगैंड के नाम लिखते समय समूह के संगत नाम के साथ पश्चलग्न के रूप में -आइडो(-ido) या      -ओ(-o) लगाते हैं| जैसे-
Cl´  क्लोराइडो 
Br´  ब्रोमाइडो 
I´  आयोडाइडो 
F´  फ्लोराइडो
CN´  सायोनाइडो 
SO4´´ सल्फेटो 
CH3COO´ ऐसिटेटो 
S´´  सल्फाइडो 
CO3´´ कार्बोनेटो 
S2O3´´ थायोसल्फेटो
OH´  हाइड्रोक्साइडो 
O´´  ऑक्सो 
SCN´ थायोसायनेटो 
C2O4´´  ऑक्जेलेटो 
SO3´´ सल्फाइटो 
NH2´  ऐमीडो 
NO3´  नाइट्रेटो 
NO2´  नाइट्राईटो-N 
ONO´  नाइट्राईटो-O
(c) धनायनिक लीगैंड  संकरों में अधिक नहीं मिलतेे हैं| इनका नामकरण समूह के संगत नाम के साथ -ium पश्चलग्न  लगाकर करतेे हैं| जैसे -
NO+  नाइट्रोसोनियम 
 NO2+  नाइट्रोनियम 
NH2NH3+  हाईड्राजिनियम 

(3) एम्बीडेंट लीगैंड के जुड़ने की विधि-
कुछ मोनोडेंटेट लीगैंड में एक से अधिक दाता परमाणु उपस्थित होते हैं, जो केंद्रीय धातु परमाणु से किसी भी दाता परमाणु द्वारा जुड़ सकते हैं| ऐसे लिगेंड को एम्बीडेंट लिगेंड कहा जाता है| ऐसी स्थिति में लिगेंड का नाम दो प्रकार से लिखा जा सकता है-
(1) एम्बीडेन्ट लीगैंड के नामकरण के लिए उस परमाणु का प्रतीक लिखते हैं जिसके द्वारा लीगैंड केंद्रीय धातु परमाणु से जुड़ सकता है| जैसे-  SCN´ एक एम्बीडेंट लीगैंड है तथा यह S और N दोनों से जुड़ सकता है| अतः इसका नाम इसके जुड़ने के आधार पर थायोसायनेटो-S या थायोसायनेटो-N होगा|
 (2) एम्बीडेंट लीगैंड का विभिन्न प्रकार से जुड़ना उनको विभिन्न नाम देकर भी समझाया जा सकता है| जैसे- लीगैंड NO2´,  N के द्वारा (-NO2´ के रूप में) या O के द्वारा(-ONO´) जुड़ सकता है| क्रमशः N और O  से जुड़ने के अनुसार इसे नाइट्रो तथा नाइट्राइटो नाम भी दिए जा सकते हैं|

(4) लीगैंडों की संख्या-
(a) यदि एक ही संकर में दो या अधिक समान प्रकार की लीगैंड उपस्थित हो तो अनुलग्नों डाई, ट्राई, टेट्रा, पेंटा, हेक्सा आदि का प्रयोग उनकी संख्या बताने के लिए किया जाता है|
(b) जब पॉलिडेंटेट लीगैंड के नाम में डाई, ट्राई आदि (जैसे- एथिलीनडाईएमीन, एथिलीनडाईएमीन टेट्राएसिटेट आदि) आंकिक अनुलग्न निहित होते हैं तो लिगेंड की 2,3,4,5,6 आदि संख्याओं को प्रदर्शित करने के लिए क्रमशः बिस, ट्रिस, टेट्राकिस, पेंटाकिस, हेक्साकिस आदि का प्रयोग करते हैं|

(5) लीगैंडो के नामों का क्रम-
जब एक से अधिक लिगेंड संकर में उपस्थित होते हैं तो उनके नाम उन पर स्थित आवेश के अनुसार न होकर वर्णमाला के अक्षरों के क्रम में लिखे जाते हैं| लिगेंड का नाम एक ही शब्द के रूप में लिखा जाता है|

(6) केंद्रीय धातु आयन का नामकरण-

(a) धनायनिक तथा उदासीन संकर-
जब संकर धनायनिक या उदासीन होते हैं तो केंद्रीय धातु परमाणु या आयन को अन्य दूसरे यौगिकों में प्रयुक्त उसके साधारण नाम द्वारा ही वर्णित किया जाता है| केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के नाम के साथ उसकी ऑक्सीकरण संख्या लिखी जाती है| ऑक्सीकरण संख्या को रोमन संख्या में एक कोष्ठक के भीतर लिखते हैं|
(b) ऋणायनिक संकर-
जब संकर ऋणायनिक होता है तो केंद्रीय धातु परमाणु या आयन के नाम के अंत में ऐट(-ate) पश्चलग्न का प्रयोग करते हैं तथा इसके साथ कोष्ठक में इसकी ऑक्सीकरण संख्या रोमन संख्या में लिखते हैं|
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EXAMPLE -



Sunday, December 6, 2020

उपसहसंयोजन यौगिकों का वर्नर सिद्धांत (Werner's theory of Co-ordination compounds )

उपसहसंयोजन यौगिकों का वर्नर सिद्धांत (Werner's theory of Co-ordination compounds )
एल्फ्रेड वर्नर (1892) ने संकर यौगिकों के गुणों का विस्तृत अध्ययन किया| इन यौगिकों के गुणों की व्याख्या करने के लिए वर्नर ने एक सिद्धांत दिया जिसे उप-सहसंयोजन यौगिकों का वर्नर सिद्धांत कहते हैं| इस सिद्धांत का संक्षिप्त विवरण निम्न है-
 वर्नर सिद्धांत की अवधारणाएँ-
(1) संकर में उपस्थित केंद्रीय धातु परमाणु या आयन दो प्रकार की संयोजकताओं का प्रदर्शन करता है- प्राथमिक संयोजकता तथा द्वितीयक संयोजकता|
(a) प्राथमिक संयोजकता-
 यह संयोजकता आयनन योग्य होती है तथा यह केंद्रीय धातु आयन की ऑक्सीकरण अवस्था के संगत होती है इसमें हमेशा एक ऋणात्मक आयन ही जुड़ता है| प्राथमिक संयोजकताओं को डॉट युक्त रेखाओं(----)  द्वारा प्रदर्शित किया जाता है| केंद्रीय धातु आयन से प्राथमिक संयोजकताओं द्वारा जुड़े आयन विलयन में आयनित होते हैं|
(b) द्वितीयक संयोजकता-
 इस प्रकार की संयोजकता आयनन योग्य नहीं होती है तथा केंद्रीय धातु परमाणु या आयन की उपसहसंयोजक संख्या के अनुरूप होती है| प्रत्येक केंद्रीय धातु परमाणु या आयन की द्वितीयक संयोजकताओं की संख्या निश्चित होती है| (वास्तव में यह संख्या केंद्रीय धातु आयन की उपसहसंयोजक संख्या के बराबर होती है)| द्वितीयक संयोजकताएँ ऋणात्मक या उदासीन अणुओ द्वारा संतुष्ट होती है| इन्हें सतत रेखाओं(-) द्वारा प्रदर्शित करते हैं| केंद्रीय धातु आयन से द्वितीयक संयोजकताओं द्वारा जुड़े समूह विलयन में आयनित नहीं होते हैं|
(2) केंद्रीय धातु परमाणु या आयन में सभी प्राथमिक तथा द्वितीयक संयोजकताओं को संतुष्ट करने की प्रवृत्ति होती है|
(3) द्वितीयक संयोजकताएँ दैशिक होती हैं जबकि प्राथमिक संयोजकता अदैशिक  होती है|

लीगैंडों का वर्गीकरण(Classification of ligands)

लीगैंडों का वर्गीकरण (Classification of ligands)
लीगैंड का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया जाता है-
(A) आवेश पर आधारित वर्गीकरण-
लीगैंड पर उपस्थित आवेश के आधार पर लीगैंड को निम्न प्रकार वर्गीकृत कर सकते हैं-
(1) उदासीन लीगैंड-
 ऐसे लीगैंड पर कोई आवेश नहीं होता है और यह प्रायः आणविक स्पीशीज होती हैं, जिनमें एक या एक से अधिक इलेक्ट्रॉनों की एकल युग्म उपस्थित रहते हैं|
 जैसे- H2O(एक्वा), NH3(एमाइन), CO(कार्बोनिल), C2H5N(पिरिडिन, py)

 (2) ऋणात्मक लीगैंड-
 ऐसे लीगैंड पर ऋण आवेश होता है और यह ऋणात्मक स्पीशीज होती हैं जिनमें एक या अधिक इलेक्ट्रॉनों के एकल युग्म  पाए जाते हैं|
 जैसे- F´ (फ़्लोराइडो),  Cl´(क्लोराइडो) Br´ (ब्रोमाइडो), I´(आयोडाइडो),  CN´ (सायनाइडो), OH´(हाइड्राक्साइडो) आदि 
 (3) धनात्मक लीगैंड-
धन आवेश वाले लिगेंड धनात्मक लिगेंड कहलाते हैं| यह संकर में बहुत कम पाए जाते हैं|
 जैसे- NO+ (नाइट्रोसायलियम),  NH2NH3+(हाइड्राजीनियम) आदि 

(B) दंतता के आधार पर वर्गीकरण (दाता परमाणुओं की संख्या पर आधारित वर्गीकरण)-
लीगैंड में उपस्थित दाता परमाणुओं की संख्या को लिगेंड की दंतता कहा जाता है| दंतता के आधार पर लीगैंडो को निम्न प्रकार बांटा जा सकता है-
(1) मोनोडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास केवल एक दाता परमाणु होता है और जो धातु परमाणु या आयन से केवल एक उप-सहसंयोजक बंध बनाता है उसे मोनोडेंटेट लीगैंड कहते हैं| ऐसे लीगैंड केवल एक बिंदु द्वारा ही केंद्रीय परमाणु से जुड़े होते हैं| यह उदासीन तथा ऋणात्मक दोनों हो सकते हैं|

(2) डाईडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास दो दाता परमाणु होता है और जो धातु परमाणु या आयन से दो उप-सहसंयोजक बंध बनाता है उसे डाईडेंटेट लीगैंड कहते हैं| ऐसे लीगैंड दो  बिंदु द्वारा केंद्रीय परमाणु से जुड़े होते हैं| 

(3) ट्राईडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास 3 दाता परमाणु होता है और जो धातु परमाणु या आयन से 3 उप-सहसंयोजक बंध बनाता है उसे ट्राईडेंटेट लीगैंड कहते हैं| ऐसे लीगैंड 3 बिंदु द्वारा केंद्रीय परमाणु से जुड़े होते हैं| 

(4) टेट्राडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास 4 दाता परमाणु होता है, उसे टेट्राडेंटेट लीगैंड कहते हैं| 

(5) पेंटाडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास 5 दाता परमाणु होता है, उसे पेंटाडेंटेट लीगैंड कहते हैं| 

(6) हेक्साडेंटेट लीगैंड-
 वह लीगैंड जिसके पास 6 दाता परमाणु होता है, उसे हेक्साडेंटेट लीगैंड कहते हैं| 

(7) सेतु लीगैंड-
वे मोनोडेंटेट लीगैंड जो एक साथ एक से अधिक धातु परमाणु या आयन से  जुड़ते हैं सेतु लिगेंड कहलाते हैं|
 जैसे-
(8)  एम्बीडेंटेट लीगैंड-
वे लीगैंड जो दो विभिन्न परमाणुओं के द्वारा उप-सहसंयोजक बंध बना सकते हैं एम्बीडेंटेट लिगेंड कहलाते हैं|
जैसे-NO2´ स्वयं को केंद्रीय धातु या आयन से N या O  दोनों के माध्यम से जोड़ सकता है |
(9) कीलेटिंग लीगैंड तथा कीलेट्स-
जब एक पॉलिडेंटेट लिगेंड दो या अधिक दाता परमाणुओं द्वारा धातु आयन से इस प्रकार जुड़ता है कि वह धातु आयन के साथ पांच या छह सदस्यीय रिंग का निर्माण करता है तो उसे कीलेट लीगैंड तथा निर्मित रिंग को कीलेट कहते हैं|
 जैसे- एेथिलिन डाईएमीन(en), डाई एथिलिन ट्राईएमीन(dien), EDTA, आदि